Thursday 20 July 2017

पहचान जिंदा रखने की जिद ने कितनी सांसे छीन ली...

गोरखा इमानदार होता है, देश के साथ गद्दारी करना गोरखा के खून में है लेकिन

गोरखा लैंड की मांग हम अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए कर रहे हैं, और यह हमारी जंग आखिरी सांस तक जारी रहेगी. दार्जीलींग से लौट कर आए एक शख्स ने यह बातें कही और कहा की हम यह लड़ाई 105 सालों से लड़ रहें हैं, हमारा आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से अब तक चला आ रहा है.  लेकिन हमारे सब्र का बांध टूट रहा हैं, वाकई इतनी लंबी लड़ाई लड़ने के बाद यह मनोस्थिती बन जाती है. चलिये इतिहास से शुरु करते हैं कि आखिर भारत देश में गोरखा का क्या इतिहास है. शुरुआत सुगौलि संधी से करते हैं, सन 1815 में ब्रिटिश शाषित भारत और नेपाल के बीच सुगौली की संधी हुई थी, इसके तहत नेपाल ने अपने जमीन का एक बड़ा हिस्सा इस्ट इंडिया कंपनी को दे दी, और उस जमीन के साथ वहां के निवासी भी भारत के हो गये. यह उस दौर की बात थी जिसके बाद गोरखा समुदाय का दार्जीलिंग, मिरिक कुर्सेयॉग सिल्लीगुड़ी, काइलीबुंग, तराई और दोअर्स क्षेत्र में आये. उस  वक्त यह पूरा क्षेत्र  भागलपुर प्रेसीडंसी के  अंतर्गत  आता  था, जिसे बाद में कोलकाता प्रेसीडेंसी कर दिया गाय और इलाके पश्चिम बंगाल का हिस्सा हो गए. इस वक्त अगल गोरखालैंड की मांग को लेकर दार्जीलिंग की खूबसूरत वादियों की फिजा में खामोशी और खूबसूरती खत्म हो गयी है, और विरोध के स्वर हर घर से मुहल्ले से निकल रहे हैं.  गोरखालैंड की मांग कर रहे लोगों का आरोप हैं कि आजादी के इतने सालों बाद भी साजिश के तहत पहाड़ी इलाको को विकास से दूर रखा गया, यहां ना ही अच्छे स्कूल खोले गये, ना ही कॉलेज ना ही अच्छे अस्पताल की स्थापना कि गयी. जिसके चलते यह इलाका काफी पिछड़ा हुआ है. इनका कहना है की इनकी भाषा और संस्कृति पश्चिम बंगाल से बिलकुल अलग है फिर इन्हें क्यों नहीं अलग राज्य का दर्जा दिया जाए. रांची में दार्जीलिग के मामले के जानकार ने बताया की यहां पर गोरखा राजनीति का शिकार हो रहे हैं. साजिश के तहत उनको उनका अधिकार नहीं मिल पा रहा है. उनको प्रतिनिधित्व भी नहीं मिल पा रहा है. अपना दर्द बताते हुए समुदाय के एक शख्स ने कहा की वो देश के किसी भी हिस्से में जाते हैं तो लोग उनसे पूछते है की क्या वो नेपाली है, इस सवाल का उन्हें हमेशा सामना करना पड़ता है. वो कहते हैं की वो नेपाली नहीं है वो भारतीय गोरखा है, क्योकि जब संधी के तहत आयी जमीन भारतीय हो गयी, नहीं भारतीय हो गयी, पेड़ पौधे भारतीय हो गये तो आखिर उस जमीन के वंशज भारतीय क्यों नहीं हो सकते हैं. उनके साथ ये भेदभाव क्यों किया जा रहा है जबकि गोरखा हमेशा देश के लिए अपनी जान देते आए हैं. फिर क्यों गोरखालैंड की मांग को लेकर उठ रहे आवाज को जबाने के प्रयास किया जा रहा है.  वैसे दौर में जब कश्मीर में हालात से देश वाकिफ है, कर्नाटक ने अपने लिए अलग झंडे की मांग रख दी, ऐसे समय में गोरखा लैंड की मांग की जा रही हैं, कुछ लोग इसे देशद्रोही नजरिये से देख रहें है लेकिन एक बार गोरखा लैड की मांग कर रहे लोगों का भी पक्ष सबको जानना चाहिए, वो अलग देश नहीं मांग रहे है वो अपना हक मांग रहे हैं, अपने विकास के लिए और अपनी पहचान को बनाये रखने रखने के लिए वो अपनी लड़ाई लड़ रहें है, एक बार सबको सोचना चाहिए.