Tuesday 20 March 2018

शायद फिर से वो चिरई वापस आ जाये वाऔर फिर से उसी बांस की झुरमुठ पर बैठकर मेरी जेठ की अलसायी शाम को अपनी चहचहाहट से तरोताजा कर दे...विश्व गौरेया दिवस विशेष






फोटो साभार: इंटरनेट




गौर से देखिये यह वही गौरेया है जो कभी झुंड के झुंड आपके घर आंगन में, मुंडेरों पर, छत में चहचहाती हुई अठखेलियां किया करती थी. पहचान में नहीं आ रहा है ना, आपको याद भी नहीं है कि आपने अंतिम बार इस छोटी से प्यारी सी चिड़ियां को कब देखा था. पर इसे पहचानने के बाद मुझे यकिन है कि सभी को उनका बचपन जरुरत याद आयेगा, जब फुदकती हुई गौरेया उनके आस-पास घुमती थी. 

फोटो साभार: इंटरनेट
सुबह की शुरुआत उनके चहचहाने से होती थी और शाम की थकावट भी उसी चहचहाहट में कहीं गुम सी हो जाती थी. पर अब ना जाने वो कहां चली गयी है. अब तो वो दिखायी भी नहीं पड़ती है. उसका चहचहाना मानों शांत सा हो गया है. अब तो आख भी अलार्म सुनकर ही खुलती है. 

यह कहीं राख बनकर उड़ होंगे....और उस आग की तपिश में आपके अपने भी जलेंगे.  

आकंड़े बताते है कि गौरेया की संख्या 60 से 80 फीसदी तक कम हो गयी है. गौरेया चिड़िंया हम इंसानों की सबसे अच्छी दोस्त और करीबी मानी जाती है, यह घरों में ही घोंसला बनाकर रहती है. अब भी गांवों के पूराने घरों में इनके घोंसले दिख जायेंगे, पर अब वो घोंसले वीरान हो चुके हैं, उन्हें झाड़ने पर गौरेया के पंख भी नजर नहीं आते हैं. 

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दरअसल हम इंसानों की महत्वाकांक्षा और सुविधाओं का उपभोग करने की बुरी आदत ने गौरेया को आज इस कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है. खेतों में इतने कीटनाशक का प्रयोग होता है कि खेतों में अब कीट-फतिंगा होता ही  नहीं है जो गौरेया का चारा है. मोबाइल रेडियेशन, प्रदूषण को यह छोटी से मासूम चिड़ियां बर्दास्त नहीं कर पाती है इसलिए यह हमसे दूर होती जा रही है. इनकी संख्या में काफी तेजी से गिरावट आ रही है. गौरेया के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए बिहार सरकार ने गौरेया को राजकिय पक्षी भी घोषित कर दिया है लेकिन उसके बावजूद गौरेया दिख कहां रहें हैं. 

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मेरा बचपन गांव में गुजरा, मेरे लिए चिड़ियां का मतलब ही गौरेया था. मिट्टी के कच्चे मकान में मेरे साथ गौरेया भी रहती थी. कई बार उनके अंडे हमारे घरों के अंदर गिरकर फूट जाते थे. घर बाहरी उंची दिवार पर बड़े-बड़े छेद बने हुए थे जिसमे वे रहते थे और दिन भर आंगन में और घरे के सामने स्थित अमरूद के पेड़ पर चहचहाते रहते थे.शाम के वक्त बांस की झुरमुठ से उनकी चहचहाहट सुनाई पड़ती थी लेकिन अब जब गांव जाता हूं तो एक भी गौरेया नजर नहीं आती है. घर तो वही है लेकिन उनके घोंसले खाली हो गये हैं.  पता नहीं दिल करता है उन्हें फिर से बुला लूं लेकिन शायद वो नहीं आयेंगे. हमारी गलतियों के कारण ही वो हमसे दूर हो गये हैं और अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं. क्या एक बार हमे उनका साथ नहीं देना चाहिए, शायद  फिर से वो चिरई वापस आ जाये वापस आ जाये और फिर से उसी बांस की झुरमुठ पर बैठकर मेरी जेठ की अलसायी शाम को अपनी चहचहाहट से तरोताजा कर दे...