Thursday 31 August 2017

सिस्टम के उपर लगी मेकअप की परत हट गयी तो तस्वीर बेपर्दा हो गयी...पर यकिन मानीये माह-ए-गम अगस्त सच में खत्म हो गया...


बीजेपी के नजरिये से कहे तो माह-ए-गम अगस्त खतम हो गया. माह-ए-गम इसलिए क्योंकि जाते जाते जीडीपी का ऐसा घाव दे गया जो समूक्षा विपक्ष कई दिनों तक कुरेदता रहेगा, और जब जब कुरेदेगा तब-तब जीडीपी की याद ताजा हो जायेगी. क्योंकि जो आंकडे जारी किए गये उसके मुताबिक पहली तिमाही जीडीपी की विकास दर 5.7 रही तो पिछले तीन सालों में सबसे कम है. पिछले वित्त वर्ष इसी तिमाही में जीडीपी की ग्रोथ 709 प्रतिशत थी, 

पर पता नहीं इस बार क्या हो गया, खैर हम अर्थशास्त्र के बड़े ज्ञानी नहीं है जो सब कुछ बता दे लेकिन बड़े-बड़े अर्थशास्त्री माथा पीट रहें है. नोटबंदी के जिस फैसले को सरकार बड़ी उपलब्धि बता रही थी, आरबीआई के आंकड़ों ने उन उपलब्धियों की हेकड़ी निकाल दी. फिर जीडीपी की गिरावट को मुद्दा बनाकर विपक्ष सरकार हाय-हाय के नारे लगायेगा. लेकिन कुछ भी कहिए कम्बख्त अगस्त बड़ा बेवफा निकला, उत्तर प्रदेश में सैकड़ों मासूम बच्चों की मौत हो गयी, जिसने मुख्यमंत्री के गृह क्षेत्र में स्वास्थ्य व्यवस्था की बखिया उधेड़ दी, अब जांच के बाद जो भी तथ्य सामने आये, गलती वर्तमान सरकार की रही हो या, पूर्ववर्ती सरकार की बच्चों की जान तो वापस नहीं आ जोयगी. 

अगस्त महीने में ही प्रभु जी कि रेल बेपटरी हो गयी, सुना है मरम्मत करने के लिए पटरी काट दी गयी थी और मरम्मत कार्य चल रहा था, दिल्ली तक खबर भेज दी गयी थी लेकिन सुना किसी ने नहीं. और टूटी पटरी में रेल दौड़ गयी, और उसका ठीकरा प्रभु जी ने खुद अपने उपर फोड़ा, अब प्रभु जी के पास 1000 हांथ और 80000 दिमाग तो नहीं है ना कि सब काम खुद करें अधिकारियों को देखना चाहिए था, 

खैर अगस्त में हुए हादसों के बाद सरकार की खूब किरकिरी हुई, इधर झारखंड में भी यही हाल है, रिम्स के बाहर सुबोधकांत सहाय धरना पर बैठ गये, क्योंकि 28 दिन में 133 बच्चों की मौत हो गयी, जेएमएम ने एमजीएम के बाहर प्रदर्शन किया, इतना सबकुछ अगस्त महीने में हुआ और माह के आखिरी दिन में क्या हुआ उपर में इसका जिक्र हो चुका है. 

क्या करें इस बार बारिश झमाझम हुई और सिस्टम के उपर लगी मेकअप की परत हट गयी तो तस्वीर बेपर्दा हो गयी. पर याकिन मानीये आज अगस्त का अाखिरी दिन है, सितंबर में जरुर मां दुर्गा देश और जनता के लिए अच्छा संकेत लेकर आयेगी.

किसी भी युद्ध और हिंसा की त्रासदी क्या हो सकती है, यह उसे देखने वाले झेलने वाले बेहतर बता सकते हैं, पर इस बच्ची को देखकर क्या लगता है.


इस बच्ची का नाम ओमरान  है, पिता का नाम बुथानिया मोहम्मद मंसूर है. पिछले सप्ताह इस बच्ची की तस्वीर यमन के सोसल मीडिया में वायरल हुई. अपने छोटे छोटे उंगुलियों से फूले हुए आंख को खोलने की कोशिश करती ओमरान  महज चार वर्ष की है, जिसे दुनिया राजनीति झगड़े हथियार,को बारे में कुछ पता नहीं है, लेकिन अपने देश में चल रहे युद्ध ने उसे गहरे जख्म दिए है.

यमन के एल्लपो शहर में हवाई हमले में ओमरान घायल हो गयी थी. इस हमले में ओमरान के पिता बथानिया मोहम्मद मंसूर के अलावा कोई नहीं बचा, ओमरान के पूरे परिवार की मौत हो गयी. मै जानता हूं आप सोच रहे हैं मै यह कहानी आपको क्यों बता रहा हू जबकि यह कहानी हमारे देश की है भी नहीं. हां यह मेरे देश की कहानी नहीं है और प्रार्थना करता हूं मेरे देश की किसी भी बच्ची की ऐसी तस्वीर दुनिया के सामने नहीं आये.

बच्ची युद्ध की शिकार है, पर सवाल यह है कि आखिर युद्ध क्यों क्या बातचीत से मसले का हल नहीं किया जा सकता है या बातचीत करने का प्रयास नहीं किया जाता है. दरअसल आज हम ऐसे हथियारों के बीच में जी रहे है जो पूरी इंसनी सभ्यता के लिए एक खतरा है. मारक मिसाइल, केमिकल हथियार जैसे कई तरह के हथियार हमने बना लिए हैं, और हम किसी से कमजोर नहीं है यह सोच युद्ध के लिए प्रेरित करता है. इस लेख पर कई लोगों को मतभेद हो सकता है और होना लाजमी है, कुछ लोग अनपढ़ या गवांर भी समझे, क्योंकि कई ऐेसे बिंदु है जो बिना छुए मैं लिख रहा है.




आतंकवाद का जिक्र मैने नहीं किया है., मै यहां पर युद्ध के खतरे और त्रासदी का जिक्र कर रहा हूं. विश्व समुदाय को ऐसी तस्वीरो को देखकर विश्व शांति की पहल करनी चाहिए. जिंदगी बहुत अनमोल होती है और मुश्किल भरी भी होती, ओमरान इस चीज को भली भांति समझ रही होगी, और जो घाव 4 वर्ष की उम्र में इसे मिला है ताउम्र उसे भूल नहीं पायेगी. ..

फोटो साभार: ट्वीटर, एचटी टाइम्स 

Wednesday 30 August 2017

एक वक्त ऐसा आयेगा जब हम पूरी तरह इसी दुनिया के होकर रह जाएगें




वाट्सएप, फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, ब्लॉग, ना जाने कितने ऐसे सोसल साइट्स आज के हाइटेक युग में उपलब्ध है जो आपकी जिंदगी का हिस्सा बन चुका है. आप भले ही शाम के वक्त दोस्तों के साथ वक्त ना बिताएं लेकिन समय मिलते ही सोसल मिडिया में एक्टीव हो जाते हैं. 

शहर की जिंदगी में भागदौड़ तो पहले से ही थी और एक समाज में रहने के बावजूद पड़ोसियों से मिलने का वक्त नहीं निकाल पाते थे और अब तो शहरों की हालत यह है कि लोग अपनों के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं और शायद इसलिये सेल्फी का प्रचलन आया की जब कभी -कभार, भूले -भटके आप दोस्तों से मिलते हैं, परिजनों से मिलते है तो झट से तस्वीरे खींच कर उसे शेयर कर देते हैं. 

क्योंकि यही अब वास्तविक दुनिया बनी जा रही है. वर्चूअल वर्ल्ड ने हमारी जिंदगी में एक खास जगह बना ली है, हम घर बैठे सुविधाएं चाहने  लगे है और धीरे-धीरे एक वर्चुअल वर्ल्ड हम खुद अपने लिए बनाते जाते रहे हैं, जहां दोस्त भी वर्चूअल है, और हम उनसे अपनी बाते भी शेयर करते हैं. सब कुछ हमे वर्चूअल वर्ल्ड में मिल जाता है.

 एक वक्त ऐसा आयेगा जब हम पूरी तरह इसी दुनिया के होकर रह जाएगें, और यही हमे सच लगने लगेगा फिर इंसान समाजिक प्राणी न हीं रह जाएगा. तो इसके खतरे का अंदाजा हम बेहतर लगा सकते हैं कि हम कहां जा रहे हैं किस ओर जा रहे, टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना अच्छी बात है, टेक्नोफ्रेंडली होना अच्छी बात है लेकिन उसमे डूब जाना और डूब कर अपनों से दूर हो जाना अच्छी बात नहीं है, हमें याद रखना चाहिए कि सामाजिक प्राणी है और इसी से हमारा अस्तित्व है. 

Tuesday 29 August 2017

लोकतंत्र मंर रहा है और हम लोकतंत्र की चीत्कार को अट्टाहस का शोर मान खुशियां मना रहें है.

कमजोर पत्रकारिता से लोकतंत्र कमजोर होता है, और कमजोर लोकतंत्र में आम जन परेशान होता है 

लोकतंत्र में हमें वोट देने का अधिकार है, और अगर हम वोट देते हैं तो हमें सवाल पूछने का भी अधिकार है. लेकिन ऐसा लगता है मौजूदा दौर में हम सवाल पूछने की परंपरा को त्याग चुके हैं और फैन बन चुके हैं, जो लोकतंत्र के लिए खतरे का संकेत है. पत्रकारिता में पढ़ा था की मजबूत पत्रकारिता लोकतंत्र में विपक्ष के रुप में काम करता है, सावल पूछता है लेकिन अब तो वो भी नहीं दिखायी देता है और ना ही सुनाई देता है.

ऐसा लगता है नेताओं के विकास विकास के शोर में विकास कहीं पीछे छूट गया है और पूरी जनता विकास को छोड़कर शोर के पीछे भाग रही है,यथार्थ को पहचानने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है. सत्ता विकास के शोर में मगन में, विपक्ष सियासत के लिए मुद्दें तलाश रहा है, अफसरशाही अाराम फरमा रही है, और जनता तमाशा देखते हुए तमाशे का हिस्सा बन रही है. और इन सबके बीच आम आदमी दम तोड़ रहा है, इलाज के आभाव में बच्चों की मौत हो रही है.

सरकारी योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए 36 लाख रुपए के एलईडी युक्त दर्जनों वाहन राज्य भर में घूम रहे हैं और एंबुलेस के आभाव में खूंटी के कालामाटी में छात्रा की मौत हो जा रही है. गुमला में एक पिता को अपने मृत बच्चे को घर ले जाने के लिए एंबुलेंस नहीं मिल रहा है, अपने पीठ पर अपने मृत बेटे का शव ले जा रहा है, दवाओं के नाम पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं पर 50 रुपये नहीं मिलने के चलते बच्चे की मौत हो जा रही है. राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में 28 दिन में 133 बच्चों की मौत हो गयी है, मरीज को जमीन के नाली के पास सुलाकर इलाज कराया जा रहा है और सरकार उद्घाटन और शिलान्यस करने में व्यस्त है. 



जमशेदपुर के एमजीएम अस्पताल में एक महीने के अंदर 164 बच्चों की मौत हो गयी, वजह किसी को पता नहीं जांच की जा रही है, एनएचआरसी स्पष्टीकरण मांग रहा है, विपक्ष इस्तीफा मांग रहा है. पर मौत सिस्टम की जिस लापरवाही से हुई उसे सुधारने का प्रयास कोई नहीं कर रहा है. यह वो आंकड़ें है जो सामने आये हैं, बाकि और कितनों की मौत हुई होगी जांच का विषय हो सकता है. स्कूलों में मिड डे मिल, गांवों में आंगनबाड़ी, पोषण सखी, ममता वाहन, गरीबों को मुफ्त चावल ना जाने समाजिक कल्याण की कितनी योजनाएं है और योजनाओं के नाम पर करोड़ों का बंदरबांट है, और झारखंड की राज्यपाल खुद कह रही है कि राज्य में 75 फीसदी आदिवासी बच्चे कुपोषित है.

हाइकोर्ट तक को दखल देकर यह कहना पड़ रहा है कि इस राज्य में आमलोगों की परेशानी समझने वाला कोई नहीं. सिर्फ स्वास्थ्य ही नहीं राज्य में बाकी सेवाओं का भी यह हाल है. बुनियादी सुविधाओं की घोर कमी है, स्कूलों में शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं है और टेट पास शिक्षक सड़क पर आंदोलन कर रहे हैं. राज्य के स्तर पर कोई भी नियुक्ति होती है उसे हाइकोर्ट से गुजरना पड़ता है. इन सबके बीच सरकार हाथी उड़ाने में व्यस्त है. यह इसलिये क्योंकि सवाल पूछने वाले चुप है. पर सभी को समझना होगा की सिर्फ बच्चों की मौत नहीं हो रही है लोकतंत्र मंर रहा है और हम लोकतंत्र की चीत्कार को अट्टाहस का शोर मान खुशियां मना रहें है. लेकिन कब तक ध्यान रहे दुनिया गोल है कभी आपका भी नंबर आ सकता है. हां मन को सुकुन से भर ले अगस्त खत्म हो रहा है...