Friday 21 September 2018

लगभग रात के पौने बारह बजे हूम्म...हूम्म..हूम्म की आवाज....गायब हो रही है यह परंपरा....




आसाढ़ महीने की आमावस की रात थी, दिन भर की हवा और बारिश में पेड़ और पक्षी सब थक चुके थे और थक कर गहरी नींद में सो रहे थे, लगभग रात के पौने बारह बजे हूम्म...हूम्म..हूम्म की आवाज बाहर से आने लगी, और  लेकिन कुत्तों  के  भौंकने के शोर में वो आवाज दब गयी. अचानक नींद खुलने के कारण मुझे सहसा कुछ याद नहीं आया और मैं थोड़ा सहम गया. जिसके बाद फिर भागने दौड़ने की आवाजे आयी. जिसके बाद मैं लाइट जलाने वाला था कि मां ने मुझे लाइट जलाने से रोक दिया. मैंने मां से पूछा की यह कैसी आवाज थी. मां ने कहा-रोग भगाने वाले लोग आये थे. शहर में रहोगे तो क्या जानोगे परंपरा क्या होती है. गांव से जुड़े रहोगे तब  तो समझ पाओगे की गांव में कैसे-कैसे रिती-रिवाज होते हैं.


गायब हो रही है यह परंपरा 
Pic By Pawan 
दरअसल दक्षिणी छोटानागपुर के जिलों में आदिवासी समुदाय के बीच यह परंपरा होती है और आदिवासी बहुल गांवों में रहने वाले दूसरे सनातन धर्म के लोग भी इस परंपरा को मानते हैं. इनका मानना है कि आसाढ़ की अमावस्या को रोग भगाया जाता है जिससे गांव में आने वाली मुसिबत और बीमारियां दूर हो जाती है. मान्यता के अनुसार रात के वक्त जब गांव के सभी घरों के दिये बुझ जाते हैं तब गांव के ही 10-12 युवक नग्न होकर हाथ में लाठी लेकर गांव में घूमते हैं और उस रात को सभी के घरों के आंगन में मिट्टी का कोई पुराना बरतन रखने के लिए कहा जाता है. सभी युवक गांव के एक-एक घर में जाकर अंधेरे में ढूंढकर उस बरतन को फोड़ते हैं. इस दौरान सभी लड़के सांकेतिक भाषा के तौर पर हूम्म...हूम्म की आवाज निकालते हैं. जिसके बाद सभी लड़के गांव की सीमा तक जाते हैं और सभी लाठी डंडे को वही छोड़ देते हैं. सुबह के वक्त सभी ग्रामीण अपने घरों को गोबर से लीप कर साफ करते हैं और फोड़े हुए मिट्टी के बर्तन के साथ पुराने कपड़ों को भी घर से निकाल कर गांव के सीमा पर जाकर फेंक देते हैं.


Pic By Pawan 
सदियों पुरानी परंपरा पर मंडरा रहा संकट

सदियों से यह परंपरा आदिवासी समाज के बीच चली आ रही है. लेकिन पिछले दो दशको से इसमे भारी गिरावट दिखी. हो सकता है यह अंधविश्वास हो लेकिन इसी के बहाने ग्रामीण सावन बारिश से पहले अपने घर की सफाई कर लेते थे. मिट्टी के टूटे फूटे बरतन जहां गंदा पानी जमा होता उसे फेंक देते थे. इससे बिमारियों से बचाव होता था. लेकिन बढ़ते शहरीकरण के कारण यह परंपरा अब खत्म हो रही है. गांव में अब युवा वर्ग भी इस काम को अंजाम देने के लिए आगे नहीं आता है. गांव भी अब खत्म होते जा रहे हैं. इस परंपरा से अतित के कई तार जुड़े हुए होंगे. इसेे बचाने की जरूरत है. 

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