Monday 18 September 2017

वो कत्ल करते चले गये मगर कातिल ना हुए जरा सा खंजर की तरफ क्या देखा हमने हम गुनहगार हो गये

वो कत्ल करते चले गये मगर कातिल ना हुए
जरा सा खंजर की तरफ क्या देखा हमने
हम गुनहगार हो गये, 

इंसानी खून से लाल हुई थी जमीन
उसे साफ करने में जरा मेरे हांथ लाल क्या हुए
सबकी नजरों में हम दागदार हो गये,

वाह री दुनिया और तेरा इंसाफ
वो खेले कानून से तो खेल-खेल रहें हैं
हमने इंसाफ के लिए आवाज क्या उठाई गद्दार हो गये,


ताउम्र उठाया इंसानियत और सच्चाई को कंधे पर
थककर जरा सा सुस्ता क्या लिये
जमाने के लिए हम गैर जिम्मेदार हो गये,



मुफलिसी नहीं देखी जाती किसी की
जेहन की कमजोरी है मेरी
उनके लिए आवाज क्या उठाई
सबके लिए सरदार हो गये


कंबख्त दिल की ख्वाहिश बहुत बड़ी है सोचता है कभी- कभी
ईमान बचाकर क्या मिला मुझे
जिन्होंने ईमान बेचा सियासत की

आज वो सरकार हो गये.

Saturday 16 September 2017

मैं वो इंसान ढ़ूंढ़ रहा हूं....




इंसानियत देखते के लिए एक इंसान ढूंढ़ रहा हूं,
सुना दफन है कहीं, वो शमशान ढूंढ़ रहा हूं

खुदगर्ज हो गयी है दुनिया, बस खुद का वजूद चाहती है
दूसरों के लिए खुद के वजूद को कर दे कुर्बान
हजारों की भीड़ में वो मेहरबान ढूंढ़ रहा हूं

कातिल हो गये हैं शौक सबके, हर बात पर खून बहाते हैं
बात बे बात भोंकते है खंजर
गैरों की जिंदगी का मोल जो समझे
सनकियों के बीच में वो कद्र दान  ढ़ूंढ़ रहा हूं

अब तो बस भी करो, बहुत हो गया
कहां से कहां क्या से क्या हो गया
एक घर में  हैं लेकिन एक घर के नहीं है
किसने उपजायी यह नफरत वो शैतान ढूंढ़ रहा हूं

दुनिया के मेल को समझे, भगवान के खेल को समझे
रिश्तों का मरम समझे, खुद का धर्म समझे
बस मै तो वो इंसान ढूंढ़ रहा हूं 

Thursday 14 September 2017

क्योंकि धार की रफ्तार धीरे हो जाती है, चट्टानों से टकराने की क्षमता खत्म हो जाती है. जिसके कारण एक बनी बनायी राह पर नदीं चलती रहती है नये रास्ते बन नहीं पाते हैं

बहुत दिन से सोच रहा हूं क्या लिखू किसपर लिखूं, क्योंकि कभी-कभी सेल्फ सेंसरशिप करना पड़ता है जो वाकई एक मुश्किलभरा काम होता है. समझ में नहीं आता है कि कहां से क्या काट दूं कहा पर क्या जोड़ दूं और इसका जवाब नहीं मिल पाता है क्योंकि मन की भावनाओं का तो बहाव होता है, वो तो अविरल धारा कि तरह बहती हैं और अगर उसमे सेंसर रुपी चेक डैम बनाकर उसे रोकने का प्रयास किया जाता है तो वो बहाव की खूबसूरती सामने नहीं आ पाती है क्योंकि धार की रफ्तार धीरे हो जाती है, चट्टानों से टकराने की क्षमता खत्म हो जाती है. जिसके कारण एक बनी बनायी राह पर नदीं चलती रहती है नये रास्ते बन नहीं पाते हैं, जो असल में घातक है, क्योंकि भावनाओं पर प्रतिबंध लगाने से नये रास्ते और नये सोच सामने नहीं आ पाते तो हैं तो फिर नया सृजन कैसे हो पायेगा, सभी एक ही धारा में बने बनाये रास्ते पर निकल पड़ेंगे तो जिंदगी नीरस हो जायेगी.

दरअसल तकलीफ हुई उस दिन जब सुरक्षा जांच के बहाने एक पत्रकार के बैग को कुत्ते से सुंघवाया गया, चलिये माना प्रोटोकॉल के तहत जांच जरुरी है, पर इतना भय क्यों और किससे, अपनों से, खुद के समाज से, अगर इतना डर होता है अपने लोगों से तो वीआईपी बनने के बाद सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा क्यों लेते हैं आप, जहां पर एक आम इंसान से ऐसे व्यवहार किया जाता है जैसे उसे इज्जत पाने  का अधिकार नहीं है, मेरा घर, मेरा शहर फिर मेरी इज्जत क्यों नहीं होती है. आप उसी समाज से क्यों डरने लगते हैं जिस समाज से पलकर बड़े होकर आप आते हैं, आप भी तो उसी समाज का हिस्सा  है, जिस समाज से आप डरते हैं उस समाज के रहनुमा तो आप ही है, समाज बनाने वाले, कानून बनाने वाले तो आप ही है, फिर डर कैसा, और आम जनता के साथ इतना अभद्र व्यवहार क्यों, वोट मांगने के लिए जब आप घर घर जाते हैं तब तो आपके साथ कुत्ता नहीं होता है. तब तो आपके साथ जाने वाले सुरक्षा कर्मी भी बड़े मीठे मीठे बोल बोलते हैं. तो फिर वीआईपी बनने के बाद अचानक क्या हो जाता है, क्यों डरने लगते हैं उसी समाज से जिसने आपका साथ दिया है, संवादहीनता क्यों बीच में आ जाती है.

आप कहते है समाज में हिंसा के लिए स्थान नहीं है, पर यहां तो मामूली सी बात के लिए हत्या हो जाती है, राजस्थान में एक ऑटोचालक की हत्या कारवालों ने सिर्फ इसलिए कर दी क्योंकि उस बेचारे की ऑटो सड़क पर खराब हो गयी और उसने साइड नहीं दिया, तो क्या हम ऐसे देश में रह रहे हैं जहां समाज हिंसक हो गया है, बात- बात पर बंदूक चलती है, हत्या होती, और वीआईपीओं को पता है कि ऐसा होता है इसलिए वे एक्स, वाई और जेड श्रेणी की सुरक्षा में घूमते हैं. देशभक्ति के नाम पर एक देश के नाम पर हम एक तो हो जाते हैं लेकिन छोटी-छोटी बात पर अपनों की ही हत्या कर देतें है, हमें इस मानसिकता से निकलना होता, समाज में संवाद का स्थान सर्वोपरि है इस सत्य को दुबारा स्थापित करना होगा, क्योंकि टीवी या अखबार के लिए एक हत्या एक छोटी सी खबर हो सकती है लेकिन उस हत्या से देश के ही किसी एक परिवार का भविष्य खत्म हो जाता है.


अक्सर ऐसी छोटी मोटी घटनाओं पर हमारा ध्यान  नहीं जाता है पर हमें खुद के अंदर से सुधार लाना होगा. हमे यह खुद तय करना होगा कि हम हमारे लिए कैसा समाज का निर्माण कर रहें है, क्योंकि उसी पर हमारा कल निर्भर करता है क्योंकि वीआईपी तो सुरक्षा लेकर घूमते हैं. इसलिए ही मैने अपने विचारों पर ना चाहते हुए भी सेंशरशिप थोपा है, क्योंकि नदीं अगर उन्मुक्त होकर बहती है तो विनाश भी होता है. पर मौजूदा दौर तो ऐसा है कि हम एक घर में हैं पर एक घर के नहीं है.

Thursday 7 September 2017

अगर आप कहते हैं कि देश में महंगाई बढ़ी है, तो यकिन मानीये जनाब आप मुगालते में जी रहे हैं जनाब जरा बाहर निकल कर देखिए सियासत कितनी सस्ती हो गयी है.





मे रा यकिन मानीये मैं सच कह रहा हूं, और मैं किसी पूर्वाग्रह या किसी विचारधारा से ग्रसित नहीं हूं वरना मेंरे उपर भी वामपंथी और दक्षिणपंथी पत्रकार का ठप्पा लग जायेगा. पर जो देखता हूं वहीं महसूस करता हूं वही बता रहा हू, और सच यह है कि सरकार इतनी मजबूत है कि उसे गुमान हो गया हैं, विपक्ष इतना कमजोर हो गया है कि सड़क पर बैठकर ला‌उडस्पीकर के सहारे गलाफाड़ कर चिल्ला रहा है, पर उसकी आवाज वाहनों के शोर में दब जा रही है.

मै सरकार की आलोचना नहीं कर रहा हूं, क्योंकि ऐसा भी नहीं है कि सरकार बिलकुल निकम्मी है, पर जहां काम होना चाहिए वो नहीं हो रहा है, और जरुरत से ज्यादा वाह वाही लूटी जा रही है. जमशेदपुर के एमजीएम अस्पताल में जितनी बच्चों की मौत हुई सभी की मौत कुपोषण से हुई, यह मै नहीं मीडिया रिपोर्टस में कहा गया, जांच टीम ने यह  बात कही, साहब अगर कुपोषण से 
बच्चों की मौत हो रही है तो फिर आंगनबाड़ी में बच्चों को मिल रहे पोषाहार कौन गटक रहा है लगे हाथ इसकी भी जांच पंद्रह दिनों के अंदर करा दिजीये, और अगर इस मामले में विपक्ष हल्ला कर रहा है तो क्या गलत कर रहा है साहब, किसी की आवाज तो आप तक पंहुचे क्योंकि आपके कान में तो सिर्फ प्रचार वाहन का शोर सुनाई देता है जो राज्य भर में घूम-घूम अापका गुनगाण कर रहे हैं और जनता इसी से खुश है. भले मरीज को अस्पताल जाने के लिए एंबुलेंस नहीं मिले पर प्रचार के वाहन होना जरुरी है, क्योंकि सियासत भले ही सस्ता हो गया है साधने का तरीका तो महंगा है ना. इन दिनों गुमला जिला अखबारों में बहुत पढ़ा जा रहा है क्योंकि वहां अस्पताल में इंसानियत बेमौत मारा जा रहा है. समझ में नहीं आता है कि आखिर मौत पर मौत हो रही है पर गलती क्या है कोई नहीं पकड़ पा रहा है, सारे इंजीनियर डॉक्टर फेल हैं. क्यों फेल है नहीं पता, आप अंदाजा लगा लीजिये. 

साहब आलम यह है कि गला फाड़ के गरीब गरीब कहने वाले अमीर पर अमीर हो रहे हैं, और बेचारा गरीब आज भी पेट भरने से आगे सोच नहीं पा रहा है. यह मत सोचियेगा वामपंथी हो गया हूं, गांव की सच्चाई देख कर बता रहा हूं. गरीबों के लिए बनी योजनाएं धूल फांक रही है, और गरीब भी धूल फांक रहा है. जो चावल मिलता है आधा चूहे खा जाते है और पीडीएस वाले खा जाते हैं. साहब गांवों में जब आप जाते हैं तो सबसे आखिर में खड़े व्यक्ति से सवाल क्यों नहीं पूछते हैं कि समस्या क्या है. 

क्यों सिर्फ आगे पीछे घुमने वाले वार्ड सदस्य मुखिया अधिकारी और चमचों से पूछते है कि क्या हाल, क्यों बताते है कि फलाने के घर में जाना है, गांव आपका है जाकर घुस जाइये किसी भी गरीब के घर में सच्चाई से सामना हो जाएगा. आज जो हालात है उसे लेकर मै सवाल कर रहा हूं, मैं किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा रहा हूं, गलती किसकी है, मैं इस पर नहीं जा रहा हूं, पर दशकों से वही गलती क्यों दोहरायी जा रही है. सच में सियासत सस्ती हो गयी है, तभी तो बार-बार जनता को धोखा दिया जा रहा है.  सियासत वाले सियासत करते नहीं थक रहे हैं, गरीब और किसान मेनहत करते नहीं थक रहा है काम सब कर रहें हैं फिर भी रोना उसी बात का है.    

Wednesday 6 September 2017

एक बार ठहर जाओं रुक जाओं थोड़ा आराम से सोच लो मेरे बारे में की तुम्हारे उर्जा की भूख और विकास की दौड़ ने मुझे बंजर बना दिया है, मै धरती मां हूं मां मुझे मां ही रहने दो, अपनी जरुरतों के लिए मुझे बांझ मत बनाओं


ज सुबह एक वीडियो देखा जिसमे जल संरक्षण को लेकर एक दूरदर्शी सोच दिखायी गयी थी साथ ही बताया गया था कि अगर वक्त रहे हम नहीं चेते तो हमारी आने वाली पीढ़ी को गला तर करने भर भी पानी नसीब नहीं होगा. वीडियों ने अंदर तक झकझोर दिया कि क्या वाकई विकास की दौड़ में हम इतने अंधे हो गये है कि विनाश नहीं दिख रहा है या हम विनाश को देखना नहीं चाह रहे है. दूसरी वाली बात मौजूदा दौर में सत्य लगती है क्योंकि हम इंसान अब कम से कम इतने समझदार जरुर हो गये है कि विनाश का आकलन नहीं कर पाये या जो हमे बार बार दिखाने का प्रयास किया जा रहा है वो नहीं देखे.
उ र्जा की भूख ने हमे इतना भूखा कर दिया है कि हम उसीके पीछे भाग रहे हैं और प्रकृति हमसे बार- बार कह रही है की एक बार ठहर  जाओं रुक जाओं थोड़ा आराम से सोच लो मेरे बारे में की तुम्हारे उर्जा की भूख और विकास की दौड़ ने मुझे बंजर बना दिया है, मै धरती मां हूं मां मुझे मां ही रहने दो, अपनी जरुुरतों के लिए मुझे बांझ मत बनाओं. पर हम है कि रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं, क्योंकि हमे लग रहा है कि बाद में रुक लेंगे अभी रुक कर क्या करे, पर वास्तविकता यह है की रुकने का समय, प्रकृति की पुकार को सुनने का समय तो बहुत बहले ही आ गया था, लेकिन हम अपनी हठधर्मिता के चलते देरी पर देरी कर रहे हैं.
ए  अंग्रेजी वेबसाइट के मुताबिक पिछले 30 सालों में 23716 औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगलों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गयी है. वेबसाइट में लिखा हुआ है कि प्रत्येक वर्ष 250 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का जंगल वन कार्यों को छोड़कर अन्य कार्यों के लिए दिया जाता है, ये सरकारी आकड़े हैं और जो वनो की अवैध कटायी होती है उसके आंकड़े हमारे पास नहीं आते हैं, तो आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि हर साल प्रकृति को कितना नुकसान हो रहा है. जिस अनुबाद में जंगलो को उजाड़ा जा रहा है उस अनुपात में पौधारोपण नहीं किया जा रहा है, क्योंकि काटनें में पांच मिनट लगते हैं और एक बड़ा पेड़ बनने में 25 साल लगते हैं.
यह तो वनों का हाल है जिसका छोटा सा आंकड़ा पेश किया गया है. भूगर्भ जलस्तर का भी यही हाल है. पानी के लिए मारामारी तो शुरु हो चुकी है अलग बात है कि मेरे पढ़ने वाले अभी तक इस मारामारी के चक्कर में नहीं पड़े हैं सिर्फ अखबारों में पढ़ा है, अब जल संरक्षण कैसे करना आप सभी को पता है, आप नहीं करते हैं तो सोच लीजिये आप अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए अपने बच्चों के लिए क्या छोड़कर जा रहे हैं.
एक बात हम सभी को समझना होगा कि सरकार को अपना प्रचार करने से फुर्सत नहीं है, खुद को नेता बताने वाले नेता अपनी सियासत करने में व्यस्त हैं, उद्योगपति जैसे तैसे करके नोट बनाने में व्यस्त हैं पता नहीं उन नोटों का क्या करेंगे जब धरती पर जीवन ही नहीं रहेगा. फिर यह जिम्मेदारी हमारी ही बनती है की हम अपनी धरती मां को बांझ होने से बचाये बंजर होने से बचाये. अब और देरी मतलब और ज्यादा नुकसान, इसलिए प्रकृति और पर्यावरण के बचाव के मामले में दूसरों का मुंह देखने के बजाय आप अपने अंदर झांके, शुरुआत खुद से, अपने घर से करे अपने आस पास से करे, और जरुर करे, मैं इसलिए बोल रहा हूं क्योंकि मैं करता हूं. 

हां अगर अब भी हम नहीं सुधरे तो एक सुबह चिलचिलाती धूप और तन को झुलसा देने वाली गर्मी में एसी लगे कमरे में पसीने से नहाकर उठेंगे और आपका पोता, या आपके बेटे का पोता अपने दादाजी से पूछेगा, दादाजी जंगल कैसा होता है, नदीयां कैसी होती हैं, जंगली जानवर किसे कहते हैं, यकिन मानीए आपके पास पछतावा के अलावा और कोई जवाब नहीं होगा. वक्त नहीं है पर सुधर जाइये. सावधान हो जाइये.  


Friday 1 September 2017

एक सन्नाटा होता था, कहीं दूर ख्यालों के गोतों में डूबोकर अपने साथ बहुत दूर ले जाती थी वो आवाज, सोचता हूं क्या अभी भी गांव में वो अपनापन होगा

आज थोड़ा फुरसत में हुं, मोबाइल स्विच ऑफ है इसलिए नहीं की मैने किया है, बल्कि इसलिए की चार्ज नहीं है, और अभी पता नहीं क्यो चार्ज करने का मन नहीं है. तो फेसबुक वाट्सएप, ट्वीटर सेथोड़ी फुर्सत मिली है. विचार के घोड़े दिमाग के अंदर दौड़ लगा रहे हैं .

पल भर में रांची से दिल्ली पंहुच जा रहा हूं, और एकाएक अतीत का वो खूबसूरत पन्ना खुल गया, विचार ना जाने क्यों आज गांव तक पंहुच गए, पढ़ायी लिखाई और रोजी-रोटी के चक्कर में पिछले 20 सालों में धीरे- धीरे गाांव से वास्ता खत्म होता सा जा रहा है.

इन 20 सालों में कैसे धीरे- धीरे नाम की पहचान बदल कर नंबर में हो गयी पता ही नहीं चला, गांव छुटा शहर आया तो पहले क्वार्टर नंबर मिला, फिर आधार नंबर मिला और अब इम्पलाई नंबर मिल गया, वाकई कितना बदल गया सब कुछ. और सबसे बड़ी बात कि इस पहचान को मै तरक्की की सीढ़ी मानकर खुश होता हूं पर क्या मैं वो हासिल कर पाया जिसके लिए इतनी मेहनत की, मैं जितना आगे बढ़ता गया गांव उतना ही पीछे छूटता गया. कितना सुकून था उस आम पेड़ के नीचे की जड़ में बैठ कर खेलने में, और इमली की डाली पकड़ कर झूला-झूलने में.


अभी भादो का मौसम है, गांव के खेतों में हरे हरे धान ललहलहा रहे होंगे, लबालब तालाब भरे होंगे, और उसमे कूदकर नहाने को वो आंनद चमकदार टाइल्स लगे बाथरुम के अंदर शावर के नीचे नहाने में कभी नहीं आया, खेतों में घुसकर मछली पकड़ने का विचार आज भी मुझे तरोताजा कर देता है. करमा के गीतों की वो धुन, जब भादों अमावस्या में कहीं दूर से कानों में सुनाई देती थी, यकीन मानीये सोनी फिल्पीस, सैंमसंग, जेबीएल किसी भी साउंड सिस्टम से आज तक उतनी मधुर आवाज नहीं सुन पाया.

एक कसक होती थी, एक सन्नाटा होता था, कहीं दूर ख्यालों के गोतों में डूबोकर अपने साथ बहुत दूर ले जाती थी वो आवाज, सोचता हूं क्या अभी भी गांव में वो अपनापन होगा, वहीं मधुर धुन सुनाई पड़ती होगी, या गीत गाने वाले की भी पहचान बदल गयी है.

गांव से आज संवाद खत्म नहीं हुआ है, लेकिन संवाद के माध्यम बदल गये और माध्यम बदलने से भाव भी बदल गये हैं. सबकुछ समय के साथ कैसे बदल गया, पर मन है कि आज उस चीज को ढ़ूढ़ रहा है. सोचता हूं काश फिर भादों अमावस्या की वैसी ही सुनसान रात में करमा की धुन और मधुर गीत सुनाई पड़ती, एक बार फिर से मै उसे जी लेता.