बहुत दिन से सोच रहा हूं क्या लिखू किसपर
लिखूं, क्योंकि कभी-कभी सेल्फ सेंसरशिप करना पड़ता है जो वाकई एक
मुश्किलभरा काम होता है. समझ में नहीं आता है कि कहां से क्या काट दूं कहा
पर क्या जोड़ दूं और इसका जवाब नहीं मिल पाता है क्योंकि मन की भावनाओं का
तो बहाव होता है, वो तो अविरल धारा कि तरह बहती हैं और अगर उसमे सेंसर रुपी
चेक डैम बनाकर उसे रोकने का प्रयास किया जाता है तो वो बहाव की खूबसूरती
सामने नहीं आ पाती है क्योंकि धार की रफ्तार धीरे हो जाती है, चट्टानों से
टकराने की क्षमता खत्म हो जाती है. जिसके कारण एक बनी बनायी राह पर नदीं
चलती रहती है नये रास्ते बन नहीं पाते हैं, जो असल में घातक है, क्योंकि
भावनाओं पर प्रतिबंध लगाने से नये रास्ते और नये सोच सामने नहीं आ पाते तो
हैं तो फिर नया सृजन कैसे हो पायेगा, सभी एक ही धारा में बने बनाये रास्ते
पर निकल पड़ेंगे तो जिंदगी नीरस हो जायेगी.
दरअसल तकलीफ हुई उस दिन जब सुरक्षा जांच के बहाने एक पत्रकार के बैग को कुत्ते से सुंघवाया गया, चलिये माना प्रोटोकॉल के तहत जांच जरुरी है, पर इतना भय क्यों और किससे, अपनों से, खुद के समाज से, अगर इतना डर होता है अपने लोगों से तो वीआईपी बनने के बाद सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा क्यों लेते हैं आप, जहां पर एक आम इंसान से ऐसे व्यवहार किया जाता है जैसे उसे इज्जत पाने का अधिकार नहीं है, मेरा घर, मेरा शहर फिर मेरी इज्जत क्यों नहीं होती है. आप उसी समाज से क्यों डरने लगते हैं जिस समाज से पलकर बड़े होकर आप आते हैं, आप भी तो उसी समाज का हिस्सा है, जिस समाज से आप डरते हैं उस समाज के रहनुमा तो आप ही है, समाज बनाने वाले, कानून बनाने वाले तो आप ही है, फिर डर कैसा, और आम जनता के साथ इतना अभद्र व्यवहार क्यों, वोट मांगने के लिए जब आप घर घर जाते हैं तब तो आपके साथ कुत्ता नहीं होता है. तब तो आपके साथ जाने वाले सुरक्षा कर्मी भी बड़े मीठे मीठे बोल बोलते हैं. तो फिर वीआईपी बनने के बाद अचानक क्या हो जाता है, क्यों डरने लगते हैं उसी समाज से जिसने आपका साथ दिया है, संवादहीनता क्यों बीच में आ जाती है.
आप कहते है समाज में हिंसा के लिए स्थान नहीं है, पर
यहां तो मामूली सी बात के लिए हत्या हो जाती है, राजस्थान में एक ऑटोचालक
की हत्या कारवालों ने सिर्फ इसलिए कर दी क्योंकि उस बेचारे की ऑटो सड़क पर
खराब हो गयी और उसने साइड नहीं दिया, तो क्या हम ऐसे देश में रह रहे हैं
जहां समाज हिंसक हो गया है, बात- बात पर बंदूक चलती है, हत्या होती, और
वीआईपीओं को पता है कि ऐसा होता है इसलिए वे एक्स, वाई और जेड श्रेणी की
सुरक्षा में घूमते हैं. देशभक्ति के नाम पर एक देश के नाम पर हम एक तो हो
जाते हैं लेकिन छोटी-छोटी बात पर अपनों की ही हत्या कर देतें है, हमें इस
मानसिकता से निकलना होता, समाज में संवाद का स्थान सर्वोपरि है इस सत्य को
दुबारा स्थापित करना होगा, क्योंकि टीवी या अखबार के लिए एक हत्या एक छोटी
सी खबर हो सकती है लेकिन उस हत्या से देश के ही किसी एक परिवार का भविष्य
खत्म हो जाता है.
अक्सर ऐसी छोटी मोटी घटनाओं पर हमारा ध्यान नहीं जाता है पर हमें खुद के अंदर से सुधार लाना होगा. हमे यह खुद तय करना होगा कि हम हमारे लिए कैसा समाज का निर्माण कर रहें है, क्योंकि उसी पर हमारा कल निर्भर करता है क्योंकि वीआईपी तो सुरक्षा लेकर घूमते हैं. इसलिए ही मैने अपने विचारों पर ना चाहते हुए भी सेंशरशिप थोपा है, क्योंकि नदीं अगर उन्मुक्त होकर बहती है तो विनाश भी होता है. पर मौजूदा दौर तो ऐसा है कि हम एक घर में हैं पर एक घर के नहीं है.
दरअसल तकलीफ हुई उस दिन जब सुरक्षा जांच के बहाने एक पत्रकार के बैग को कुत्ते से सुंघवाया गया, चलिये माना प्रोटोकॉल के तहत जांच जरुरी है, पर इतना भय क्यों और किससे, अपनों से, खुद के समाज से, अगर इतना डर होता है अपने लोगों से तो वीआईपी बनने के बाद सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा क्यों लेते हैं आप, जहां पर एक आम इंसान से ऐसे व्यवहार किया जाता है जैसे उसे इज्जत पाने का अधिकार नहीं है, मेरा घर, मेरा शहर फिर मेरी इज्जत क्यों नहीं होती है. आप उसी समाज से क्यों डरने लगते हैं जिस समाज से पलकर बड़े होकर आप आते हैं, आप भी तो उसी समाज का हिस्सा है, जिस समाज से आप डरते हैं उस समाज के रहनुमा तो आप ही है, समाज बनाने वाले, कानून बनाने वाले तो आप ही है, फिर डर कैसा, और आम जनता के साथ इतना अभद्र व्यवहार क्यों, वोट मांगने के लिए जब आप घर घर जाते हैं तब तो आपके साथ कुत्ता नहीं होता है. तब तो आपके साथ जाने वाले सुरक्षा कर्मी भी बड़े मीठे मीठे बोल बोलते हैं. तो फिर वीआईपी बनने के बाद अचानक क्या हो जाता है, क्यों डरने लगते हैं उसी समाज से जिसने आपका साथ दिया है, संवादहीनता क्यों बीच में आ जाती है.

अक्सर ऐसी छोटी मोटी घटनाओं पर हमारा ध्यान नहीं जाता है पर हमें खुद के अंदर से सुधार लाना होगा. हमे यह खुद तय करना होगा कि हम हमारे लिए कैसा समाज का निर्माण कर रहें है, क्योंकि उसी पर हमारा कल निर्भर करता है क्योंकि वीआईपी तो सुरक्षा लेकर घूमते हैं. इसलिए ही मैने अपने विचारों पर ना चाहते हुए भी सेंशरशिप थोपा है, क्योंकि नदीं अगर उन्मुक्त होकर बहती है तो विनाश भी होता है. पर मौजूदा दौर तो ऐसा है कि हम एक घर में हैं पर एक घर के नहीं है.
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