आज थोड़ा फुरसत में हुं, मोबाइल स्विच ऑफ है इसलिए नहीं की मैने किया है,
बल्कि इसलिए की चार्ज नहीं है, और अभी पता नहीं क्यो चार्ज करने का मन नहीं
है. तो फेसबुक वाट्सएप, ट्वीटर सेथोड़ी फुर्सत मिली है. विचार के घोड़े
दिमाग के अंदर दौड़ लगा रहे हैं .
पल भर में रांची से दिल्ली पंहुच जा रहा हूं, और एकाएक अतीत का वो खूबसूरत पन्ना खुल गया, विचार ना जाने क्यों आज गांव तक पंहुच गए, पढ़ायी लिखाई और रोजी-रोटी के चक्कर में पिछले 20 सालों में धीरे- धीरे गाांव से वास्ता खत्म होता सा जा रहा है.
इन 20 सालों में कैसे धीरे- धीरे नाम की पहचान बदल कर नंबर में हो गयी पता ही नहीं चला, गांव छुटा शहर आया तो पहले क्वार्टर नंबर मिला, फिर आधार नंबर मिला और अब इम्पलाई नंबर मिल गया, वाकई कितना बदल गया सब कुछ. और सबसे बड़ी बात कि इस पहचान को मै तरक्की की सीढ़ी मानकर खुश होता हूं पर क्या मैं वो हासिल कर पाया जिसके लिए इतनी मेहनत की, मैं जितना आगे बढ़ता गया गांव उतना ही पीछे छूटता गया. कितना सुकून था उस आम पेड़ के नीचे की जड़ में बैठ कर खेलने में, और इमली की डाली पकड़ कर झूला-झूलने में.
अभी भादो का मौसम है,
गांव के खेतों में हरे हरे धान ललहलहा रहे होंगे, लबालब तालाब भरे होंगे,
और उसमे कूदकर नहाने को वो आंनद चमकदार टाइल्स लगे बाथरुम के अंदर शावर के
नीचे नहाने में कभी नहीं आया, खेतों में घुसकर मछली पकड़ने का विचार आज भी
मुझे तरोताजा कर देता है. करमा के गीतों की वो धुन, जब भादों अमावस्या में
कहीं दूर से कानों में सुनाई देती थी, यकीन मानीये सोनी फिल्पीस, सैंमसंग,
जेबीएल किसी भी साउंड सिस्टम से आज तक उतनी मधुर आवाज नहीं सुन पाया.
एक कसक होती थी, एक सन्नाटा होता था, कहीं दूर ख्यालों के गोतों में डूबोकर अपने साथ बहुत दूर ले जाती थी वो आवाज, सोचता हूं क्या अभी भी गांव में वो अपनापन होगा, वहीं मधुर धुन सुनाई पड़ती होगी, या गीत गाने वाले की भी पहचान बदल गयी है.
गांव से आज संवाद खत्म नहीं हुआ है, लेकिन संवाद के माध्यम बदल गये और माध्यम बदलने से भाव भी बदल गये हैं. सबकुछ समय के साथ कैसे बदल गया, पर मन है कि आज उस चीज को ढ़ूढ़ रहा है. सोचता हूं काश फिर भादों अमावस्या की वैसी ही सुनसान रात में करमा की धुन और मधुर गीत सुनाई पड़ती, एक बार फिर से मै उसे जी लेता.
पल भर में रांची से दिल्ली पंहुच जा रहा हूं, और एकाएक अतीत का वो खूबसूरत पन्ना खुल गया, विचार ना जाने क्यों आज गांव तक पंहुच गए, पढ़ायी लिखाई और रोजी-रोटी के चक्कर में पिछले 20 सालों में धीरे- धीरे गाांव से वास्ता खत्म होता सा जा रहा है.
इन 20 सालों में कैसे धीरे- धीरे नाम की पहचान बदल कर नंबर में हो गयी पता ही नहीं चला, गांव छुटा शहर आया तो पहले क्वार्टर नंबर मिला, फिर आधार नंबर मिला और अब इम्पलाई नंबर मिल गया, वाकई कितना बदल गया सब कुछ. और सबसे बड़ी बात कि इस पहचान को मै तरक्की की सीढ़ी मानकर खुश होता हूं पर क्या मैं वो हासिल कर पाया जिसके लिए इतनी मेहनत की, मैं जितना आगे बढ़ता गया गांव उतना ही पीछे छूटता गया. कितना सुकून था उस आम पेड़ के नीचे की जड़ में बैठ कर खेलने में, और इमली की डाली पकड़ कर झूला-झूलने में.
एक कसक होती थी, एक सन्नाटा होता था, कहीं दूर ख्यालों के गोतों में डूबोकर अपने साथ बहुत दूर ले जाती थी वो आवाज, सोचता हूं क्या अभी भी गांव में वो अपनापन होगा, वहीं मधुर धुन सुनाई पड़ती होगी, या गीत गाने वाले की भी पहचान बदल गयी है.
गांव से आज संवाद खत्म नहीं हुआ है, लेकिन संवाद के माध्यम बदल गये और माध्यम बदलने से भाव भी बदल गये हैं. सबकुछ समय के साथ कैसे बदल गया, पर मन है कि आज उस चीज को ढ़ूढ़ रहा है. सोचता हूं काश फिर भादों अमावस्या की वैसी ही सुनसान रात में करमा की धुन और मधुर गीत सुनाई पड़ती, एक बार फिर से मै उसे जी लेता.
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