Friday 10 November 2017

जानती हो हमारे बीच एक ऐसा रिश्ता था, जिसे हम चाहकर भी कोई नाम दे नहीं सकते थे...जो हमे दिखाई नही देती थी या हम देखना नहीं चाहते थे


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पता है आज तुम्हारी बहुत याद आ रही है, जानता हूं तुम यहां नहीं हो मेरे साथ नहीं हो, मेरे शहर से इतनी दूर हो कि शायद मेरी याद को वहां पहुंचने में कुछ घंटे का वक्त लग जाये. पर वो कुछ घंटे कई सदियों के बराबर होंगे, कैसे यकीन दिलाउं आज कि तुम्हारे बिना हमेशा अधूरा ही रहूंगा, तुम्हारे जाने के बाद ऑफिस में अधिक समय बीताता हूं, देर रात तक ऑफिस में बैठा रहता हूं, कोशिश करता हूं की शाम में ऑफिस में ही किसी कंंप्यूटर के आगे टक-टक करता रहूं भले ही कोई काम नहीं हो पर जबरदस्ती उस शाम से दूर भागने के लिए मैं यहीं बैठा रहता हूं, इसलिये शायद अब दोस्त भी साथ छोड़ दे रहे हैं, शाम में दफ्तर से निकल कर मेरे दोस्तों के साथ वक्त बीताना तुम्हे अच्छा नहीं लगता था, पता है मैने वो छोड़ दिया है. सच कहूं तो डर लगता है अब बाहर जाने में, क्या करूं काम के सिलसिले में हमेशा शहरों की शोर से दूर गांवों में जाता हूं , 

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 जानती हो लौटते वक्त कहीं सुनसान सड़क के किनारे बाइक खड़ा करके घंटों अकेले में तुमसे बात करता हूं. शाम में पहाड़ों के पीछे डूबता हुआ सूरज मुझे तुम्हारे आगोश में ले जाता है. उसका सुर्ख लाल रंग मेरे अंदर कई तरह के रंग भर देता है, जिसमे प्यार का रंग और गहरा हो जाता है. दिसंबर का आखिरी सप्ताह है, ठंड अपने पूरे शबाब पर है, लेकिन जब भी रात होती है यकीन मानो तुम्हारे साथ बीताये गये हसीन लम्हों की याद इतनी जोर से दस्तक देती है कि सिरहाने से नींद उड़ जाती है. आधी रात के बाद भी घंटो तक छत पर जाकर चांद को देखता रहता हूं. 

बढ़ती उर्जा की भूख को मिटाने के लिए सरकार ने इस इलाके की खूबसूरती को मिटाने की परियोजना तैयार कर दी थी  

जानते हो उस वक्त का सुकून मुझे तुम्हारे पास होने का एहसास देता है. याद है उन दिनों पर चांद को देखकर अपने प्यार का इजहार किया करते हैं क्या तुम अब भी चांद को देखते हो या फिर उस शहर की चकाचौंध रोशनी में चांद कही छिप जाता है, हो सकता है आसमान के धूंध में तुम्हे चांद तो नहीं दिखता होगा, लेकिन यकीन से कह सकता हूं तुम चांद को देखने की कोशिश जरुर करती होगी. तुम अक्सर कहती थी ना जो होता है अच्छे के लिए होता है, 

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सच बताउं आज तक समझ में नहीं आया कि आखिर अच्छा क्या हुआ, सबकुछ तो था हमारे बीच, जानती हो हमारे बीच एक ऐसा रिश्ता था, जिसे हम चाहकर भी कोई नाम दे नहीं सकते थे, हम साथ-साथ तो थे लेकिन फिर भी एक दूरी थी, जो हमे दिखाई नही देती थी या हम देखना नहीं चाहते थे. बस उस रिश्ते की मौज में यूंं ही नादान परिदों की तरह हम उड़ रहे थे, कभी मैं आगे निकल रहा था कभी तुम आगे निकल रही थी. साथ उड़ते हुए भी साथ में नहीं उड रहे थे. 

तुम्हे जमाने का डर था और मुझे तुम्हे खोने का डर, आज मैं एक बात कहूं तुम्हारे जाने के लगभग 13 महीने के बाद मैंने जीना सीख लिया है, पर अभी भी कुछ नहीं बदला है, हां तुम्हारी बेटी बड़ी हो गयी होगी, पर वो तस्वीर अभी भी याद में ताजा है जब तुम आंख बंद किये सिर पर दुपट्टा लेकर मंदिर में पूजा कर रही थी, मै बाहर था और एक कार की रोशनी तुम्हारे चेहरे पर पड़ रही थी, सच बताऊं मेरी पूजा तो वही थी, जो मैं देख रहा था.....

Monday 6 November 2017

बढ़ती उर्जा की भूख को मिटाने के लिए सरकार ने इस इलाके की खूबसूरती को मिटाने की परियोजना तैयार कर दी थी


कोईल कारो परियोजना के विरोध स्थल की जन्मस्थली, जब विरोध कर रहे लोगों पर बरसायी गयी थी गोलियां, आठ ग्रामीण हुए थे शहीद


photo by Pawan

एक फरवरी 2001 तोरपा प्रखंड के इतिहास में हमेशा याद रखा जायेगा जब कोयल कारो पनबिजली परियोजना का विरोध कर रहे आदिवासी ग्रामीणों पर पुलिस ने गोलियां बरसायी थी और आठ ग्रामीण शहीद हो गये थे. यह विरोध कोयलकारो जनसंगठन की अगुवाई में किया गया था, ग्रामीण एकजुट होकर अपनी जल जगंल और जमीन बचाने का विरोध कर रहे थे. विरासत में मिली अपनी दमदार और अदभूत् सांस्कृतिक पहचान को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे. 

तोरपा प्रखंड के लोहाजिमी, तपकरा
photo by Pawan
के आसपास का इलाका जिसे प्रकृति ने असीम सुंदरता दी है. उंचे पहाड़ है घने जंगल है और कल-कल बहते झरने है, लेकिन बढ़ती उर्जा की भूख को मिटाने के लिए सरकार ने इस इलाके की खूबसूरती को मिटाने की परियोजना तैयार कर दी थी. शायद इसे इलाके के लोगों का दुर्भाग्य ही कहेंगे क्योंकि कुदरत ने जो इन्हें वरदान के रुप में दिया है वहीं इनके लिए अभिशाप हो गया है. तभी तो विरोध करने की नौबत आ गयी थी. 

photo by Pawan 
दरअसल कोयल कारो पनबिजली परियोजना की शुरुआत 1958 में बिहार सरकार के द्वारा की गयी थी, उस समय यह एशिया की दूसरी सबसे बड़ी पनबिजली परियोजना मानी जाती थी. इसके बाद भारत सरकार के उपक्रम एनएचपीसी को निर्माण की जिम्मेवारी सौंपी गयी. 1881 में एनएचपीसी ने परियोजना को लेकर काम शुरु किया. लेकिन बाद में विस्थापन के डर से कोयलकारो जनसंगठन के बैनर तले ग्रामीणों नें विरोध शुरु किया, विरोध लागातार जारी था लेकिन इसे दरकिनार करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंम्हा राव ने परियोजना के शिलान्यास की घोषणा कर दी. 

इस घोषणा के साथ ही परियोजना विरोध संगठनो सहित झारखंड पार्टी और कई राजनीतिक दलों नें आंदोलन और तेज कर दिया और डूब क्षेत्र में बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया. जिसके बाद एक फरवरी को विरोध के दौरान गोलियां चली और आठ ग्रामीण शहीद हो गये थे. आज भी एनएचपीसी के क्वार्टर तोरपा में बने हुए हैं जिसपर स्थानीय लोग रह रहे हैं. ग्रामीणों के विरोध को देखते हुए सरकार ने इस परियोजना से अपने हाथ खड़े कर लिये. लेकिन अब भी इस परियोजना को बंद नहीं माना जा सकता है. 

photo by Pawan 
जिन सवालों को लेकर परियोजना को बंद कराया गया था वो सवाल अब भी अनसुलझे हैं. पर्यावरण कि जिन चिंताओं को लेकर इस पर सवाल खड़े हुए थे आज भी उनका जवाब नहीं मिल पाया है. जिसके कारण सरकार का यह कदम कई सवाल खड़े करता है. पर्यावरण के लिहाज से देखा जाये तो यह काफी खतरनाक साबित हो सकता है. क्योंकि इसके निर्माण से कई गांव डूब जायेेंगे. लाखो हेक्टेयर के वनक्षेत्र बर्बाद हो जायेेंगे. लाखों की संख्या में ग्रामीण विस्थापित होगे, यह वो ग्रामीण है जिनकी दिनचर्या ही जंगल से शुरु होती है और जंगलों से वो बेतहाशा प्यार करते हैं.

पूर्वजों को अपने साथ-अपने पास रखने की अनोखी परंपरा, ताकि हमेशा आने वाली पीढी पूर्वजों को रखे याद और उन्हें मिलता रहे आशीर्वाद 
photo by Pawan 

ग्रामीणों का अपना बसा-बसाया समाज खत्म हो जायेगा. इनके साथ इनकी समृद्ध संस्कृित खत्म हो जायेगी. इनका अधिकार खत्म हो जायेगा. और विस्थापित होने के बाद सभी ग्रामीण मजदूर बन जायेंगे. सरकार को इस दूसरी तस्वीर को भी देखना होगा. इलाके के बड़े ही शांत स्वभाव और सीधे होते हैं इनकी परंपरा समाप्त हो जायेगी.  

पूर्वजों को अपने साथ-अपने पास रखने की अनोखी परंपरा, ताकि हमेशा आने वाली पीढी पूर्वजों को रखे याद और उन्हें मिलता रहे आशीर्वाद

stones at Lohajimi Village Torpa                 Photo: Pawan Singh Rathore   
आदिवासी समाज के अंदर कई तरह की परंपराये चलती है जिसके अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग मायने होते हैं. मै इस समाज के इतिहास के बार में तो ज्यादा जानकारी नहीं रखता हूं पर जो कुछ समाज में आदिकाल से चला आ रहा उसे अपने चश्मे से देखकर उसका विश्लेषण कर रहा हूं हो सकता है मैं गलत भी हो जाउं क्योंकि मैं आज जो भी लिख रहा हूं वो जानकारी मैने सिर्फ मैने स्थानीय लोगों से बातचीत करके हासिल की है. क्योंकि मुझे यहां पर अपने बुजूर्गों के प्रति पूर्वजों के प्रति भावनात्मक लगाव दिखा वो अमूमन हमारे कथित आधुनिक और मशीनी समाज से धीरे-धीरे गायब होता जा रहा है शायद इसलिए ओल्ड एज होम में भीड़ बढ़ती जा रही है. 

name in stone at Lohajimi Village                                                                      photo: Pawan Singh Rathore
रिपोर्टिंग के सिलसिले में मैं खूंटी जिला के तोरपा प्रखंड गया था और वहां के झटिंगटोली और लोहाजिमी गांवों में गया. दोनो गांवो के बीच की दूरी बीस किलोमीटर से अधिक है. तोरपा प्रखंड मुंडा आदिवासी बहुल इलाका है और सांस्कृतिक तौर पर काफी समृद्ध है. यह मै अपने नजरिये के हिसाब से लिख रहा हूं, हो सकता है आपकी राय मुझसे अलग हो. इन दोनो ही गांवों में मैने उचें-उचें पत्थर देखा जो कृत्रिम तौर पर गाड़े गये थे, कुछ पत्थरों में नाम भी अंकित थे, 

अमूमन ऐसे पत्थर पांचवी अनुसूची वाले क्षेत्रों में रहते हैं जहां पर सविधान के मुताबिक पांचवी अुनसूची के आधार पर उन इलाकों को दी गयी विशेषाधिकार की जानकारी अंकित होती है, पर इन पत्थरों में नाम और तारीख लिखे हुए थे. पुछताछ के बाद ग्रामीणों ने बताया कि घर के अगर बुजूर्ग की मौत होती है तो उसे दफना दिया जाता है और फिर एक साल बाद दफनाएं गए जगह से हड्डी को लाकर घर के पास ही गाड़ दिया जाता है और उसके उपर पत्थर गाड़ दिया जाता है. 

ग्रामीणों ने बताया कि इस दौरान उस घर में शादी जैसा माहौल रहता है और पूरे रीति रिवाज से सारे काम होते हैं. इतना कुछ कार्यक्रम होते है लेकिन इसके पीछे एक बात तो तय है जो सामने आती है वो है सम्मान, इस प्रक्रिया से मुझे यह बात समझ में आयी की समाज के लोग अपने बुजूर्गो को हमेशा अपने पास रखना चाहते हैं. उनका कहना है कि ऐसा करने से वो हमेशा हमारे सामने रहते है साथ ही हमारे आने वाली पीढ़ियां भी उन्हें जान पाती है और कई पुश्तों तक हमारी पहचान बनी रहती है. यह प्रेम सिर्फ इसी समाज में देखने के लिए मिलता है, इस इलाके के गांवों में हर घर के बाहर आपको ऐसे पत्थर दिख जायेंगे. 

Sight of Starting of Saranda forest  Photo: Pawan Singh Rathore
प्राकृतिक तौर पर कुदरत ने इस इलाके को अतुलनीय खूबसुरती दी है. उंचे-उचें पहाड़ है इसके और सांरडा के घने जंगलो की शुरुआत है. फिजाओं में खामोशी है और अदभूत संस्कृति की पहचान के साथ माटी की खुशबू है. गांवो तक जाने के लिए सड़के हैं. फटका पंचायत का लोहजिमी गांव खूटी और पश्चिमी सिंहभूम के बीच का सीमावर्ती गांव है, गांव  के बाद  से पहाड़ और सारंडा के घने जंगलो की शुरुआत होती. कभी यहां के फिजाओं में बंदूको का शोर था लेकिन अब धीरे-धीरे हालात काबू में आ रहे हैं. कई ऐसी कहानीयां है जिन्हे देखने की और समझने की जरुरत है. 

Monday 23 October 2017

मोर बेटी संतोषी भूख से मइर गेलक, फिर धर्म आउर जमीन कर का काम, सरकार केकरो बने मोकेभरपेट खाना चाही, बदन में कपड़ा चाही आउर काम चाहि...

बेटी संतोषी की मौत के बाद चरिया अंदर से टूट चूकी थी, पर समय बीतने के साथ धीरे धीरे अकेले ही जिंदगी जीना सीख रही थी. अघन का महीना में सांझ जल्दी हो जाता है, तो बकरी चराकर जल्दी घर लौट आयी थी, शाम में भूख लगी थी जल्दी से चुल्हा जलाकर घर में रखे हुए मकई को भूंज रही थी, ठीक उसी समय शंकर घर में आया. घर में घुसने के बाद शंकर ने चरिया का हाल सामाचार पूछा और कहा कि सल सुबह रांची जाना है, सुबह तीन बजे तैयार हो जाना गाड़ी आएगा ले जाने के लिए. तो चरिया ने शंकर से पूछा की रांची क्यों जाना है, शंकर ने कुछ नहीं बताया बस कहा कि कोई रैली है  वहां जाना  है गांव का सबकोई  जा रहा है. इतना कहकर शंकर चला गया. 

जिसके बाद चरिया के मन में भी रांची जाने का ख्याल आया, लेकिन सबसे पहले उसके मन में ख्याल आया की उसकी बकरी को कौन चरा देगा, जिसके बाद चरिया फगुवा के पास चली गयी और उसे बकरी चराने के लिए बोलकर आ गयी, फगुआ ने चरिया को कहा कि कोई फायदा नहीं है रैली में जाकर अपना पैसा खर्चा होगा, और नेता लोग का किस्मत चमकेगा. पर चरिया कहां मानने वाली थी. कहते हैं ना इंसान जब अकेला होता है तो स्वच्छंद हो जाता है और सब कुछ जी लेना चाहता है, चरिया के ख्याल भी ऐसे हो गये थे. 

फगुवा के पास से चरिया जल्दी लौटकर आयी, रात में जल्दी से खाना बनाकर चरिया सोने के लिए आ गयी लेकिन आंखो में नींद कहां थी,उसके मन में तो रांची जाने का ख्याल हिलोरं मार रहा था, उसने सुना था रांची में उंची उंची बिल्डींगे हैं, चौड़े रास्ते हैं और कई बड़े अधिकारी और मंत्री रांची में रहते हैं, वहां जाकर वो अपने लिए फरियाद कर सकती है, इसी सोच मे ना जाने कब चरिया की आंख  लग गयी और सूबह मर्गे की बांग के साथ वो उठकर खेत से शौच करके आ गयी. तैयार होकर अपने पास कुछ पैसे रखे और रैली में जाने वाली बस में बैठ गयी. रांची पहुंचते ही चरिया यहां के आलीशान मकान और बड़े बड़े कॉंप्लेक्स देखकर चौंक गयी. गाड़ी मैदान से दूर खड़ा कर दिया गया. 


काफी देर धूप में पैदल चलने के बाद वो मोरहाबादी मैदान पहुंची तो देखा प्यास से गला तर करने के लिए पानी की भी व्यवस्था नहीं थी. खुद के पासे पैसे थे तो जाकर ठेले में समोसाखा लिया. जिसके बाद बैठकर पूरा भाषण सुनी. पूरा भाषण सुनने के बाद भी समझ में चरिया को  नहीं आया कि वो यहां किसलिए आयी थी. जिसके बाद चरिया जाकर बस में बैठ गय फिर घर चली गयी रात में यह सोचती रही आखिर उनकी बेटी के बारे में बात क्यों नही हुई... 

Wednesday 18 October 2017

साहेब मेरा आधार कार्ड तो जोड़ा हुआ नहीं है तो वोट कैसे देने दिए हमको....

पूस का महीना था, सुबह की खिली हुई धूप थी और चरिया के घर से आज सुबह की धुंआ निकल रहा था. बेटी सोमरी की मौत के तीन साल बीत चुके थे और फिर से चुनाव आ गया था. चरिया भी वोट देने की तैयारी में थी. कल ही बकरी चराते समय उसने फगुवा को बताया था कि उसे कंबल, साड़ी, चावल और पैसा मिला है. इसलिए वो वोट देने के लिए जायेगी. गांव के सरकारी स्कूल के पास ही उसका घर था, वोट का दिन था तो घर के बाहर स्कूल के पाल मेला लगा था, बंदूक धारी पुलिस और कई अफसर आये थे. अफसर इसलिए की बेटी की मौत के बाद चरिया लोगों को थोड़ा बहुत पहचानने लगी थी. शायद इसलिए चरिया के घर से आज सुबह ही धुआं निकल रहा था कि घर में चावल है जल्दी पका खाकर वोट देकर और बकरी चराने जायेगी. 

    पानी लाये कुआं में गयी थी तो बुधनी ने चरिया को बताया था कि नेता के लोग आये थे और घर में कुछ पैसा चावल और कपड़ा देकर गये हैं, चरिया को भी यह सब सामान मिला था, कंबल देकर लोग कह रहे थे की फूल छाप में बटन दबा देना, गैस चुल्हा मिलेगा, पेंशन का पैसा मिलेगा, घर मिलेगा, साड़ी देकर कह रहे थे की हांथ छाप दिखेगा उस बटन को दबा देना, बकरी चराने नहीं जाना पड़ेगा और गांव में काम मिल जायेगा और घर भी दिला देंगे , चावल और पैसा देकर कह रहे थे कि तीर धनुष छाप का बटन दबाना हमलोग तुम्हारा ख्याल रखेंगे, बाकी सब बाहरी है हमलोग तुम्हारा अपना है, चरिया उन की बातों को सुनकर समझ फैसला नहीं कर पा रही थी कि किसकों वोट दे. 

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     पंद्रह दिन पहले से चरिया बकरी चराने के लिए मैदान के पास जा रही थी, मैदान में बहुत भीड़ हुआ था माइक लगा कर नेता लोग बोल रहा था गांव वाला का सब दुख दूर कर देंगे, उस समय एक पल के लिए चरिया के मन में भी ख्याल आया था कि जाकर पूछ ले कि मेरी सोमरी को वापस लो दोगे क्या? पर पुलिस के डर से वो अपना सवाल नहीं पूछ पायी. लेकिन आज चुनाव के दिन सुबह सुबह घर से धुआं निकल रहा था, और खुद नया कंबल ओढ़कर धूप में बैठकर चावल चुन रही थी. आज वो जल्दी उठी थी, रात में नया कंबल ओढ़कर अच्छे से सोयी थी, जानती थी की सुबह-सुबह स्कूल के पास भीड़ हो जायेगी तो चार बजे ही शौच होकर लौट आयी थी. थोड़ी देर बाद चरिया नहा कर और तैयार होकर नयी साड़ी पहनकर वोट देने के लिए स्कूल पहुंच गयी. 



     स्कूल के पास ही उसे फगुआ, छोटन, ननकू और शंकर सभी ने टोक-टोक कर अपने-अपने नेता को वोट के लिए कहा था, चरिया इसी उधेड़बुन में अपने नाम की पर्ची कटाकर वोट देने के लिए स्कूल के अंदर चली गयी, अपना पहचान पत्र दिखाया और वोट देने चली गयी अंदर इवीएम मशीन को देखकर उसके मन में एक ही सवाल था कि किसने मुझे क्या दिया है कि मै  बटन दबाऊ, इसी उधेड़बुन में चरिया ने सबसे नीचे वाला बटन दबाया और चूपचाप बाहर निकल गयी और बाहर बैठे बाबू से पूछा साहेब मेरा आधार कार्ड तो जोड़ा हुआ नहीं है तो वोट कैसे देने दिए हमको, पर आज मेरी बेटी नहीं है कोई नहीं मरेगा. शाम में चरिया नयी साड़ी पहनकर बकरी चराकर अपने घर लौट रही थी. 


Tuesday 17 October 2017

आधार कार्ड के चक्कर में मेरी जिंदगी का आधार छिन गया, मुझे राशन नहीं मिला और बेटी भात के लिए बिलखते हुए मर गयी




शादी का शोर था, डीजे की धुन बज रही थी, गोरे काले, क्रीम लगाये हुए चमचमाते चेहरे डीजे की रंगीन रोशनी में जगमग हो रहे थे. अच्छे-अच्छे पकवान बने थे, अपने-अपने पसंद से लोग खाना चुन-चुन कर खा रहे थे, पेट में भले ही उतना ना अंटे लेकिन प्लेट में जितना अंटे उतना खाना लेकर सभी खा रहे थे. कोई अच्छे से खा रहा था कोई अनमने ढंग से खा रहा था, कोई बच्चा पूरे पार्टी में घूम-घूम कर आइसक्रीम खा रहा था कोई अाधा प्लेट खाकर खाने को प्लेट सहित डस्ट बीन में डाल रहा था. 



उस पार्टी में ही एक बूढ़िया फटे पुराने साड़ी में लिपटी हुई ठंड से बचने का प्रयास करती हुई सभी प्लेट को एक-एक कर चुन रही थी और साफ कर रही थी. बचे हुए खाने को जैसे ही वह फेंकती थी कुत्तों को झुंड भौंकते हुए उस पर टूट पड़ता . एक ही जगह की दो तस्वीर थी एक तरफ मौज-मस्ती डीजे की धुन और अमीरी की चकाचौंध थी, दूसरी तरफ भोजन के लिए पेट भरने के लिए संघर्ष था. दोनो के बीच में चरिया अपना पेट भरने के लिए ठंड में ठिठूरते हुए ठंड में अपने फटी साड़ी से खुद को बचाते हुए ठंडे पानी से सभी प्लेट को साफ कर रही थी. प्लेट मांजते-माजंते चरिया अतित के उस पन्ने में चली गयी जहां भूख ने, भात ने उसकी एकमात्र बेटी को भी छीन लिया था. चरिया को याद आ रहा था  कि कैसे उसकी 11 साल  की बेटी  सोमरी भात मांग रही थी, और भात मांगते-मांगते सोमरी की आवाज मद्धिम हो गयी, फिर अचानक एक दिन बिना बताये ही हमेशा के लिए भूखे पेट सो गयी . 


आश्विन का महीना था, खेत में धान और मड़ुआ पके नहीं थे. घर में अनाज का दाना नहीं था, एक दुकान में चावल मिलता था पर सरकारी नियम कानून ने आधार कार्ड के छोटे से कागज के टुकड़े के लिए इतना पचड़ा किया कि दुकानदार चावल देने से मना कर दिया. गांव में एक बार बड़े लोग आये थे, गाड़ी में उनके लिए बड़ा स्टेज बना था, चरिया ने वहां बकरी चराते हुए सुना था कि स्कूल में खाना मिलता है तो बच्ची को व हां अच्छा खाना मिलेगा, पर जब सोमरी घर आकर बतायी तो मालूम चला कि बड़े लोग खाली बोलते हैं, पेट नहीं भरते हैं, सोमरी बतायी थी कि खाली चावल दाल और सब्जी मिलता है, अंडा मुर्गा, मीट मछली तो सूंघने भर के लिए मिलता है, पर फिर भी पेट भर रहा था, पर जब सोमरी की मौत हुई थी तब तो स्कूल भी बंद था, खाना कहां से मिलता.  

चरिया प्लेट धोते-धोते जाने कहां से कहां पहुंच गयी थी, उसे लग रहा था आज उसकी सोमरी जिंदा होती तो उसका भी ब्याह होता वो नयी साड़ी पहनती लेकिन नियती को यह कहां मंजूर था. चरिया को याद आ रहा था कि किस तरीके से पत्रकार और बड़े बड़े साहब उसके घर आ रहे थे और पूछताछ कर रहे थे, राज्य के मुखिया भी पचास हजार रुपया देने का एलान किये थे. और जिला के बड़ा साहेब बोले थे कि 24 घंटे के अंदर जांच करेंगे और कार्रवाई होगी. ठंड से ठिठूरती हुई चरिया की आंखों में पानी भर गया था, सोच रही थी भगवान तेरा कैसा न्याय है, भात-भात कहते मेरी सोमरी गहरी नींद में सो गयी और आज यहां पर भात को लोग फेंक रहा है. 

चरिया बैठे-बैठे सोच रही थी कि जिस रफ्तार से बाबुओं ने उस समय जांच किया था उस रफ्तार से अगर पहले काम किये होते तो आज उसकी  बेटी जिंदा होती, पर कुछ नहीं हुआ, पचास हजार रुपया का मुंह भी नहीं देखा और क्या हुआ पता भी नहीं चला. बस जब सोमरी की लाश को लोग ले जा रहे थे उस समय एक बड़ा गाड़ी जिसमे बड़ा सा टीवी लगा हुआ था वो बोल रहा था राज्य बहुत विकास कर रहा है और सभी को भरपेट खाने के लिए एक रुपये प्रति किलो के दर से चावल मिल रहा है. 

Monday 2 October 2017

भूखे पेट वास्ता तो रोटी है

सरकारी घोषणाओं की झड़ी से
पेट की क्षुधा शांती नहीं होती
भूखे पेट वास्ता तो रोटी है

सहानूभूति के शब्दों को नहीं खाये जाते हैं
पीठ पर थपथपी से प्यास नहीं बुझती
भूखे पेट का वास्ता तो रोटी है









घर में अन्न ना हो तो रोजा भी नहीं होता
शांत पड़े चुल्हे से नवरात्र भी नहीं होता
भूखे पेट का वास्ता तो रोटी से है.

चाहे आलिशान मकान दे दिजीये
चाहे बुलेट ट्रेन दे दिजीये
भू्खे पेट का वास्ता तो रोटी से है
 
बस यह व्यवस्था कर दो कि
भरपेट भोजन मिल जाए
कोई भूखा ना रहे
भू्ख का वास्ता तो रोटी तो है.

Monday 18 September 2017

वो कत्ल करते चले गये मगर कातिल ना हुए जरा सा खंजर की तरफ क्या देखा हमने हम गुनहगार हो गये

वो कत्ल करते चले गये मगर कातिल ना हुए
जरा सा खंजर की तरफ क्या देखा हमने
हम गुनहगार हो गये, 

इंसानी खून से लाल हुई थी जमीन
उसे साफ करने में जरा मेरे हांथ लाल क्या हुए
सबकी नजरों में हम दागदार हो गये,

वाह री दुनिया और तेरा इंसाफ
वो खेले कानून से तो खेल-खेल रहें हैं
हमने इंसाफ के लिए आवाज क्या उठाई गद्दार हो गये,


ताउम्र उठाया इंसानियत और सच्चाई को कंधे पर
थककर जरा सा सुस्ता क्या लिये
जमाने के लिए हम गैर जिम्मेदार हो गये,



मुफलिसी नहीं देखी जाती किसी की
जेहन की कमजोरी है मेरी
उनके लिए आवाज क्या उठाई
सबके लिए सरदार हो गये


कंबख्त दिल की ख्वाहिश बहुत बड़ी है सोचता है कभी- कभी
ईमान बचाकर क्या मिला मुझे
जिन्होंने ईमान बेचा सियासत की

आज वो सरकार हो गये.

Saturday 16 September 2017

मैं वो इंसान ढ़ूंढ़ रहा हूं....




इंसानियत देखते के लिए एक इंसान ढूंढ़ रहा हूं,
सुना दफन है कहीं, वो शमशान ढूंढ़ रहा हूं

खुदगर्ज हो गयी है दुनिया, बस खुद का वजूद चाहती है
दूसरों के लिए खुद के वजूद को कर दे कुर्बान
हजारों की भीड़ में वो मेहरबान ढूंढ़ रहा हूं

कातिल हो गये हैं शौक सबके, हर बात पर खून बहाते हैं
बात बे बात भोंकते है खंजर
गैरों की जिंदगी का मोल जो समझे
सनकियों के बीच में वो कद्र दान  ढ़ूंढ़ रहा हूं

अब तो बस भी करो, बहुत हो गया
कहां से कहां क्या से क्या हो गया
एक घर में  हैं लेकिन एक घर के नहीं है
किसने उपजायी यह नफरत वो शैतान ढूंढ़ रहा हूं

दुनिया के मेल को समझे, भगवान के खेल को समझे
रिश्तों का मरम समझे, खुद का धर्म समझे
बस मै तो वो इंसान ढूंढ़ रहा हूं 

Thursday 14 September 2017

क्योंकि धार की रफ्तार धीरे हो जाती है, चट्टानों से टकराने की क्षमता खत्म हो जाती है. जिसके कारण एक बनी बनायी राह पर नदीं चलती रहती है नये रास्ते बन नहीं पाते हैं

बहुत दिन से सोच रहा हूं क्या लिखू किसपर लिखूं, क्योंकि कभी-कभी सेल्फ सेंसरशिप करना पड़ता है जो वाकई एक मुश्किलभरा काम होता है. समझ में नहीं आता है कि कहां से क्या काट दूं कहा पर क्या जोड़ दूं और इसका जवाब नहीं मिल पाता है क्योंकि मन की भावनाओं का तो बहाव होता है, वो तो अविरल धारा कि तरह बहती हैं और अगर उसमे सेंसर रुपी चेक डैम बनाकर उसे रोकने का प्रयास किया जाता है तो वो बहाव की खूबसूरती सामने नहीं आ पाती है क्योंकि धार की रफ्तार धीरे हो जाती है, चट्टानों से टकराने की क्षमता खत्म हो जाती है. जिसके कारण एक बनी बनायी राह पर नदीं चलती रहती है नये रास्ते बन नहीं पाते हैं, जो असल में घातक है, क्योंकि भावनाओं पर प्रतिबंध लगाने से नये रास्ते और नये सोच सामने नहीं आ पाते तो हैं तो फिर नया सृजन कैसे हो पायेगा, सभी एक ही धारा में बने बनाये रास्ते पर निकल पड़ेंगे तो जिंदगी नीरस हो जायेगी.

दरअसल तकलीफ हुई उस दिन जब सुरक्षा जांच के बहाने एक पत्रकार के बैग को कुत्ते से सुंघवाया गया, चलिये माना प्रोटोकॉल के तहत जांच जरुरी है, पर इतना भय क्यों और किससे, अपनों से, खुद के समाज से, अगर इतना डर होता है अपने लोगों से तो वीआईपी बनने के बाद सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा क्यों लेते हैं आप, जहां पर एक आम इंसान से ऐसे व्यवहार किया जाता है जैसे उसे इज्जत पाने  का अधिकार नहीं है, मेरा घर, मेरा शहर फिर मेरी इज्जत क्यों नहीं होती है. आप उसी समाज से क्यों डरने लगते हैं जिस समाज से पलकर बड़े होकर आप आते हैं, आप भी तो उसी समाज का हिस्सा  है, जिस समाज से आप डरते हैं उस समाज के रहनुमा तो आप ही है, समाज बनाने वाले, कानून बनाने वाले तो आप ही है, फिर डर कैसा, और आम जनता के साथ इतना अभद्र व्यवहार क्यों, वोट मांगने के लिए जब आप घर घर जाते हैं तब तो आपके साथ कुत्ता नहीं होता है. तब तो आपके साथ जाने वाले सुरक्षा कर्मी भी बड़े मीठे मीठे बोल बोलते हैं. तो फिर वीआईपी बनने के बाद अचानक क्या हो जाता है, क्यों डरने लगते हैं उसी समाज से जिसने आपका साथ दिया है, संवादहीनता क्यों बीच में आ जाती है.

आप कहते है समाज में हिंसा के लिए स्थान नहीं है, पर यहां तो मामूली सी बात के लिए हत्या हो जाती है, राजस्थान में एक ऑटोचालक की हत्या कारवालों ने सिर्फ इसलिए कर दी क्योंकि उस बेचारे की ऑटो सड़क पर खराब हो गयी और उसने साइड नहीं दिया, तो क्या हम ऐसे देश में रह रहे हैं जहां समाज हिंसक हो गया है, बात- बात पर बंदूक चलती है, हत्या होती, और वीआईपीओं को पता है कि ऐसा होता है इसलिए वे एक्स, वाई और जेड श्रेणी की सुरक्षा में घूमते हैं. देशभक्ति के नाम पर एक देश के नाम पर हम एक तो हो जाते हैं लेकिन छोटी-छोटी बात पर अपनों की ही हत्या कर देतें है, हमें इस मानसिकता से निकलना होता, समाज में संवाद का स्थान सर्वोपरि है इस सत्य को दुबारा स्थापित करना होगा, क्योंकि टीवी या अखबार के लिए एक हत्या एक छोटी सी खबर हो सकती है लेकिन उस हत्या से देश के ही किसी एक परिवार का भविष्य खत्म हो जाता है.


अक्सर ऐसी छोटी मोटी घटनाओं पर हमारा ध्यान  नहीं जाता है पर हमें खुद के अंदर से सुधार लाना होगा. हमे यह खुद तय करना होगा कि हम हमारे लिए कैसा समाज का निर्माण कर रहें है, क्योंकि उसी पर हमारा कल निर्भर करता है क्योंकि वीआईपी तो सुरक्षा लेकर घूमते हैं. इसलिए ही मैने अपने विचारों पर ना चाहते हुए भी सेंशरशिप थोपा है, क्योंकि नदीं अगर उन्मुक्त होकर बहती है तो विनाश भी होता है. पर मौजूदा दौर तो ऐसा है कि हम एक घर में हैं पर एक घर के नहीं है.

Thursday 7 September 2017

अगर आप कहते हैं कि देश में महंगाई बढ़ी है, तो यकिन मानीये जनाब आप मुगालते में जी रहे हैं जनाब जरा बाहर निकल कर देखिए सियासत कितनी सस्ती हो गयी है.





मे रा यकिन मानीये मैं सच कह रहा हूं, और मैं किसी पूर्वाग्रह या किसी विचारधारा से ग्रसित नहीं हूं वरना मेंरे उपर भी वामपंथी और दक्षिणपंथी पत्रकार का ठप्पा लग जायेगा. पर जो देखता हूं वहीं महसूस करता हूं वही बता रहा हू, और सच यह है कि सरकार इतनी मजबूत है कि उसे गुमान हो गया हैं, विपक्ष इतना कमजोर हो गया है कि सड़क पर बैठकर ला‌उडस्पीकर के सहारे गलाफाड़ कर चिल्ला रहा है, पर उसकी आवाज वाहनों के शोर में दब जा रही है.

मै सरकार की आलोचना नहीं कर रहा हूं, क्योंकि ऐसा भी नहीं है कि सरकार बिलकुल निकम्मी है, पर जहां काम होना चाहिए वो नहीं हो रहा है, और जरुरत से ज्यादा वाह वाही लूटी जा रही है. जमशेदपुर के एमजीएम अस्पताल में जितनी बच्चों की मौत हुई सभी की मौत कुपोषण से हुई, यह मै नहीं मीडिया रिपोर्टस में कहा गया, जांच टीम ने यह  बात कही, साहब अगर कुपोषण से 
बच्चों की मौत हो रही है तो फिर आंगनबाड़ी में बच्चों को मिल रहे पोषाहार कौन गटक रहा है लगे हाथ इसकी भी जांच पंद्रह दिनों के अंदर करा दिजीये, और अगर इस मामले में विपक्ष हल्ला कर रहा है तो क्या गलत कर रहा है साहब, किसी की आवाज तो आप तक पंहुचे क्योंकि आपके कान में तो सिर्फ प्रचार वाहन का शोर सुनाई देता है जो राज्य भर में घूम-घूम अापका गुनगाण कर रहे हैं और जनता इसी से खुश है. भले मरीज को अस्पताल जाने के लिए एंबुलेंस नहीं मिले पर प्रचार के वाहन होना जरुरी है, क्योंकि सियासत भले ही सस्ता हो गया है साधने का तरीका तो महंगा है ना. इन दिनों गुमला जिला अखबारों में बहुत पढ़ा जा रहा है क्योंकि वहां अस्पताल में इंसानियत बेमौत मारा जा रहा है. समझ में नहीं आता है कि आखिर मौत पर मौत हो रही है पर गलती क्या है कोई नहीं पकड़ पा रहा है, सारे इंजीनियर डॉक्टर फेल हैं. क्यों फेल है नहीं पता, आप अंदाजा लगा लीजिये. 

साहब आलम यह है कि गला फाड़ के गरीब गरीब कहने वाले अमीर पर अमीर हो रहे हैं, और बेचारा गरीब आज भी पेट भरने से आगे सोच नहीं पा रहा है. यह मत सोचियेगा वामपंथी हो गया हूं, गांव की सच्चाई देख कर बता रहा हूं. गरीबों के लिए बनी योजनाएं धूल फांक रही है, और गरीब भी धूल फांक रहा है. जो चावल मिलता है आधा चूहे खा जाते है और पीडीएस वाले खा जाते हैं. साहब गांवों में जब आप जाते हैं तो सबसे आखिर में खड़े व्यक्ति से सवाल क्यों नहीं पूछते हैं कि समस्या क्या है. 

क्यों सिर्फ आगे पीछे घुमने वाले वार्ड सदस्य मुखिया अधिकारी और चमचों से पूछते है कि क्या हाल, क्यों बताते है कि फलाने के घर में जाना है, गांव आपका है जाकर घुस जाइये किसी भी गरीब के घर में सच्चाई से सामना हो जाएगा. आज जो हालात है उसे लेकर मै सवाल कर रहा हूं, मैं किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा रहा हूं, गलती किसकी है, मैं इस पर नहीं जा रहा हूं, पर दशकों से वही गलती क्यों दोहरायी जा रही है. सच में सियासत सस्ती हो गयी है, तभी तो बार-बार जनता को धोखा दिया जा रहा है.  सियासत वाले सियासत करते नहीं थक रहे हैं, गरीब और किसान मेनहत करते नहीं थक रहा है काम सब कर रहें हैं फिर भी रोना उसी बात का है.    

Wednesday 6 September 2017

एक बार ठहर जाओं रुक जाओं थोड़ा आराम से सोच लो मेरे बारे में की तुम्हारे उर्जा की भूख और विकास की दौड़ ने मुझे बंजर बना दिया है, मै धरती मां हूं मां मुझे मां ही रहने दो, अपनी जरुरतों के लिए मुझे बांझ मत बनाओं


ज सुबह एक वीडियो देखा जिसमे जल संरक्षण को लेकर एक दूरदर्शी सोच दिखायी गयी थी साथ ही बताया गया था कि अगर वक्त रहे हम नहीं चेते तो हमारी आने वाली पीढ़ी को गला तर करने भर भी पानी नसीब नहीं होगा. वीडियों ने अंदर तक झकझोर दिया कि क्या वाकई विकास की दौड़ में हम इतने अंधे हो गये है कि विनाश नहीं दिख रहा है या हम विनाश को देखना नहीं चाह रहे है. दूसरी वाली बात मौजूदा दौर में सत्य लगती है क्योंकि हम इंसान अब कम से कम इतने समझदार जरुर हो गये है कि विनाश का आकलन नहीं कर पाये या जो हमे बार बार दिखाने का प्रयास किया जा रहा है वो नहीं देखे.
उ र्जा की भूख ने हमे इतना भूखा कर दिया है कि हम उसीके पीछे भाग रहे हैं और प्रकृति हमसे बार- बार कह रही है की एक बार ठहर  जाओं रुक जाओं थोड़ा आराम से सोच लो मेरे बारे में की तुम्हारे उर्जा की भूख और विकास की दौड़ ने मुझे बंजर बना दिया है, मै धरती मां हूं मां मुझे मां ही रहने दो, अपनी जरुुरतों के लिए मुझे बांझ मत बनाओं. पर हम है कि रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं, क्योंकि हमे लग रहा है कि बाद में रुक लेंगे अभी रुक कर क्या करे, पर वास्तविकता यह है की रुकने का समय, प्रकृति की पुकार को सुनने का समय तो बहुत बहले ही आ गया था, लेकिन हम अपनी हठधर्मिता के चलते देरी पर देरी कर रहे हैं.
ए  अंग्रेजी वेबसाइट के मुताबिक पिछले 30 सालों में 23716 औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगलों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गयी है. वेबसाइट में लिखा हुआ है कि प्रत्येक वर्ष 250 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का जंगल वन कार्यों को छोड़कर अन्य कार्यों के लिए दिया जाता है, ये सरकारी आकड़े हैं और जो वनो की अवैध कटायी होती है उसके आंकड़े हमारे पास नहीं आते हैं, तो आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि हर साल प्रकृति को कितना नुकसान हो रहा है. जिस अनुबाद में जंगलो को उजाड़ा जा रहा है उस अनुपात में पौधारोपण नहीं किया जा रहा है, क्योंकि काटनें में पांच मिनट लगते हैं और एक बड़ा पेड़ बनने में 25 साल लगते हैं.
यह तो वनों का हाल है जिसका छोटा सा आंकड़ा पेश किया गया है. भूगर्भ जलस्तर का भी यही हाल है. पानी के लिए मारामारी तो शुरु हो चुकी है अलग बात है कि मेरे पढ़ने वाले अभी तक इस मारामारी के चक्कर में नहीं पड़े हैं सिर्फ अखबारों में पढ़ा है, अब जल संरक्षण कैसे करना आप सभी को पता है, आप नहीं करते हैं तो सोच लीजिये आप अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए अपने बच्चों के लिए क्या छोड़कर जा रहे हैं.
एक बात हम सभी को समझना होगा कि सरकार को अपना प्रचार करने से फुर्सत नहीं है, खुद को नेता बताने वाले नेता अपनी सियासत करने में व्यस्त हैं, उद्योगपति जैसे तैसे करके नोट बनाने में व्यस्त हैं पता नहीं उन नोटों का क्या करेंगे जब धरती पर जीवन ही नहीं रहेगा. फिर यह जिम्मेदारी हमारी ही बनती है की हम अपनी धरती मां को बांझ होने से बचाये बंजर होने से बचाये. अब और देरी मतलब और ज्यादा नुकसान, इसलिए प्रकृति और पर्यावरण के बचाव के मामले में दूसरों का मुंह देखने के बजाय आप अपने अंदर झांके, शुरुआत खुद से, अपने घर से करे अपने आस पास से करे, और जरुर करे, मैं इसलिए बोल रहा हूं क्योंकि मैं करता हूं. 

हां अगर अब भी हम नहीं सुधरे तो एक सुबह चिलचिलाती धूप और तन को झुलसा देने वाली गर्मी में एसी लगे कमरे में पसीने से नहाकर उठेंगे और आपका पोता, या आपके बेटे का पोता अपने दादाजी से पूछेगा, दादाजी जंगल कैसा होता है, नदीयां कैसी होती हैं, जंगली जानवर किसे कहते हैं, यकिन मानीए आपके पास पछतावा के अलावा और कोई जवाब नहीं होगा. वक्त नहीं है पर सुधर जाइये. सावधान हो जाइये.  


Friday 1 September 2017

एक सन्नाटा होता था, कहीं दूर ख्यालों के गोतों में डूबोकर अपने साथ बहुत दूर ले जाती थी वो आवाज, सोचता हूं क्या अभी भी गांव में वो अपनापन होगा

आज थोड़ा फुरसत में हुं, मोबाइल स्विच ऑफ है इसलिए नहीं की मैने किया है, बल्कि इसलिए की चार्ज नहीं है, और अभी पता नहीं क्यो चार्ज करने का मन नहीं है. तो फेसबुक वाट्सएप, ट्वीटर सेथोड़ी फुर्सत मिली है. विचार के घोड़े दिमाग के अंदर दौड़ लगा रहे हैं .

पल भर में रांची से दिल्ली पंहुच जा रहा हूं, और एकाएक अतीत का वो खूबसूरत पन्ना खुल गया, विचार ना जाने क्यों आज गांव तक पंहुच गए, पढ़ायी लिखाई और रोजी-रोटी के चक्कर में पिछले 20 सालों में धीरे- धीरे गाांव से वास्ता खत्म होता सा जा रहा है.

इन 20 सालों में कैसे धीरे- धीरे नाम की पहचान बदल कर नंबर में हो गयी पता ही नहीं चला, गांव छुटा शहर आया तो पहले क्वार्टर नंबर मिला, फिर आधार नंबर मिला और अब इम्पलाई नंबर मिल गया, वाकई कितना बदल गया सब कुछ. और सबसे बड़ी बात कि इस पहचान को मै तरक्की की सीढ़ी मानकर खुश होता हूं पर क्या मैं वो हासिल कर पाया जिसके लिए इतनी मेहनत की, मैं जितना आगे बढ़ता गया गांव उतना ही पीछे छूटता गया. कितना सुकून था उस आम पेड़ के नीचे की जड़ में बैठ कर खेलने में, और इमली की डाली पकड़ कर झूला-झूलने में.


अभी भादो का मौसम है, गांव के खेतों में हरे हरे धान ललहलहा रहे होंगे, लबालब तालाब भरे होंगे, और उसमे कूदकर नहाने को वो आंनद चमकदार टाइल्स लगे बाथरुम के अंदर शावर के नीचे नहाने में कभी नहीं आया, खेतों में घुसकर मछली पकड़ने का विचार आज भी मुझे तरोताजा कर देता है. करमा के गीतों की वो धुन, जब भादों अमावस्या में कहीं दूर से कानों में सुनाई देती थी, यकीन मानीये सोनी फिल्पीस, सैंमसंग, जेबीएल किसी भी साउंड सिस्टम से आज तक उतनी मधुर आवाज नहीं सुन पाया.

एक कसक होती थी, एक सन्नाटा होता था, कहीं दूर ख्यालों के गोतों में डूबोकर अपने साथ बहुत दूर ले जाती थी वो आवाज, सोचता हूं क्या अभी भी गांव में वो अपनापन होगा, वहीं मधुर धुन सुनाई पड़ती होगी, या गीत गाने वाले की भी पहचान बदल गयी है.

गांव से आज संवाद खत्म नहीं हुआ है, लेकिन संवाद के माध्यम बदल गये और माध्यम बदलने से भाव भी बदल गये हैं. सबकुछ समय के साथ कैसे बदल गया, पर मन है कि आज उस चीज को ढ़ूढ़ रहा है. सोचता हूं काश फिर भादों अमावस्या की वैसी ही सुनसान रात में करमा की धुन और मधुर गीत सुनाई पड़ती, एक बार फिर से मै उसे जी लेता.  

Thursday 31 August 2017

सिस्टम के उपर लगी मेकअप की परत हट गयी तो तस्वीर बेपर्दा हो गयी...पर यकिन मानीये माह-ए-गम अगस्त सच में खत्म हो गया...


बीजेपी के नजरिये से कहे तो माह-ए-गम अगस्त खतम हो गया. माह-ए-गम इसलिए क्योंकि जाते जाते जीडीपी का ऐसा घाव दे गया जो समूक्षा विपक्ष कई दिनों तक कुरेदता रहेगा, और जब जब कुरेदेगा तब-तब जीडीपी की याद ताजा हो जायेगी. क्योंकि जो आंकडे जारी किए गये उसके मुताबिक पहली तिमाही जीडीपी की विकास दर 5.7 रही तो पिछले तीन सालों में सबसे कम है. पिछले वित्त वर्ष इसी तिमाही में जीडीपी की ग्रोथ 709 प्रतिशत थी, 

पर पता नहीं इस बार क्या हो गया, खैर हम अर्थशास्त्र के बड़े ज्ञानी नहीं है जो सब कुछ बता दे लेकिन बड़े-बड़े अर्थशास्त्री माथा पीट रहें है. नोटबंदी के जिस फैसले को सरकार बड़ी उपलब्धि बता रही थी, आरबीआई के आंकड़ों ने उन उपलब्धियों की हेकड़ी निकाल दी. फिर जीडीपी की गिरावट को मुद्दा बनाकर विपक्ष सरकार हाय-हाय के नारे लगायेगा. लेकिन कुछ भी कहिए कम्बख्त अगस्त बड़ा बेवफा निकला, उत्तर प्रदेश में सैकड़ों मासूम बच्चों की मौत हो गयी, जिसने मुख्यमंत्री के गृह क्षेत्र में स्वास्थ्य व्यवस्था की बखिया उधेड़ दी, अब जांच के बाद जो भी तथ्य सामने आये, गलती वर्तमान सरकार की रही हो या, पूर्ववर्ती सरकार की बच्चों की जान तो वापस नहीं आ जोयगी. 

अगस्त महीने में ही प्रभु जी कि रेल बेपटरी हो गयी, सुना है मरम्मत करने के लिए पटरी काट दी गयी थी और मरम्मत कार्य चल रहा था, दिल्ली तक खबर भेज दी गयी थी लेकिन सुना किसी ने नहीं. और टूटी पटरी में रेल दौड़ गयी, और उसका ठीकरा प्रभु जी ने खुद अपने उपर फोड़ा, अब प्रभु जी के पास 1000 हांथ और 80000 दिमाग तो नहीं है ना कि सब काम खुद करें अधिकारियों को देखना चाहिए था, 

खैर अगस्त में हुए हादसों के बाद सरकार की खूब किरकिरी हुई, इधर झारखंड में भी यही हाल है, रिम्स के बाहर सुबोधकांत सहाय धरना पर बैठ गये, क्योंकि 28 दिन में 133 बच्चों की मौत हो गयी, जेएमएम ने एमजीएम के बाहर प्रदर्शन किया, इतना सबकुछ अगस्त महीने में हुआ और माह के आखिरी दिन में क्या हुआ उपर में इसका जिक्र हो चुका है. 

क्या करें इस बार बारिश झमाझम हुई और सिस्टम के उपर लगी मेकअप की परत हट गयी तो तस्वीर बेपर्दा हो गयी. पर याकिन मानीये आज अगस्त का अाखिरी दिन है, सितंबर में जरुर मां दुर्गा देश और जनता के लिए अच्छा संकेत लेकर आयेगी.

किसी भी युद्ध और हिंसा की त्रासदी क्या हो सकती है, यह उसे देखने वाले झेलने वाले बेहतर बता सकते हैं, पर इस बच्ची को देखकर क्या लगता है.


इस बच्ची का नाम ओमरान  है, पिता का नाम बुथानिया मोहम्मद मंसूर है. पिछले सप्ताह इस बच्ची की तस्वीर यमन के सोसल मीडिया में वायरल हुई. अपने छोटे छोटे उंगुलियों से फूले हुए आंख को खोलने की कोशिश करती ओमरान  महज चार वर्ष की है, जिसे दुनिया राजनीति झगड़े हथियार,को बारे में कुछ पता नहीं है, लेकिन अपने देश में चल रहे युद्ध ने उसे गहरे जख्म दिए है.

यमन के एल्लपो शहर में हवाई हमले में ओमरान घायल हो गयी थी. इस हमले में ओमरान के पिता बथानिया मोहम्मद मंसूर के अलावा कोई नहीं बचा, ओमरान के पूरे परिवार की मौत हो गयी. मै जानता हूं आप सोच रहे हैं मै यह कहानी आपको क्यों बता रहा हू जबकि यह कहानी हमारे देश की है भी नहीं. हां यह मेरे देश की कहानी नहीं है और प्रार्थना करता हूं मेरे देश की किसी भी बच्ची की ऐसी तस्वीर दुनिया के सामने नहीं आये.

बच्ची युद्ध की शिकार है, पर सवाल यह है कि आखिर युद्ध क्यों क्या बातचीत से मसले का हल नहीं किया जा सकता है या बातचीत करने का प्रयास नहीं किया जाता है. दरअसल आज हम ऐसे हथियारों के बीच में जी रहे है जो पूरी इंसनी सभ्यता के लिए एक खतरा है. मारक मिसाइल, केमिकल हथियार जैसे कई तरह के हथियार हमने बना लिए हैं, और हम किसी से कमजोर नहीं है यह सोच युद्ध के लिए प्रेरित करता है. इस लेख पर कई लोगों को मतभेद हो सकता है और होना लाजमी है, कुछ लोग अनपढ़ या गवांर भी समझे, क्योंकि कई ऐेसे बिंदु है जो बिना छुए मैं लिख रहा है.




आतंकवाद का जिक्र मैने नहीं किया है., मै यहां पर युद्ध के खतरे और त्रासदी का जिक्र कर रहा हूं. विश्व समुदाय को ऐसी तस्वीरो को देखकर विश्व शांति की पहल करनी चाहिए. जिंदगी बहुत अनमोल होती है और मुश्किल भरी भी होती, ओमरान इस चीज को भली भांति समझ रही होगी, और जो घाव 4 वर्ष की उम्र में इसे मिला है ताउम्र उसे भूल नहीं पायेगी. ..

फोटो साभार: ट्वीटर, एचटी टाइम्स 

Wednesday 30 August 2017

एक वक्त ऐसा आयेगा जब हम पूरी तरह इसी दुनिया के होकर रह जाएगें




वाट्सएप, फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, ब्लॉग, ना जाने कितने ऐसे सोसल साइट्स आज के हाइटेक युग में उपलब्ध है जो आपकी जिंदगी का हिस्सा बन चुका है. आप भले ही शाम के वक्त दोस्तों के साथ वक्त ना बिताएं लेकिन समय मिलते ही सोसल मिडिया में एक्टीव हो जाते हैं. 

शहर की जिंदगी में भागदौड़ तो पहले से ही थी और एक समाज में रहने के बावजूद पड़ोसियों से मिलने का वक्त नहीं निकाल पाते थे और अब तो शहरों की हालत यह है कि लोग अपनों के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं और शायद इसलिये सेल्फी का प्रचलन आया की जब कभी -कभार, भूले -भटके आप दोस्तों से मिलते हैं, परिजनों से मिलते है तो झट से तस्वीरे खींच कर उसे शेयर कर देते हैं. 

क्योंकि यही अब वास्तविक दुनिया बनी जा रही है. वर्चूअल वर्ल्ड ने हमारी जिंदगी में एक खास जगह बना ली है, हम घर बैठे सुविधाएं चाहने  लगे है और धीरे-धीरे एक वर्चुअल वर्ल्ड हम खुद अपने लिए बनाते जाते रहे हैं, जहां दोस्त भी वर्चूअल है, और हम उनसे अपनी बाते भी शेयर करते हैं. सब कुछ हमे वर्चूअल वर्ल्ड में मिल जाता है.

 एक वक्त ऐसा आयेगा जब हम पूरी तरह इसी दुनिया के होकर रह जाएगें, और यही हमे सच लगने लगेगा फिर इंसान समाजिक प्राणी न हीं रह जाएगा. तो इसके खतरे का अंदाजा हम बेहतर लगा सकते हैं कि हम कहां जा रहे हैं किस ओर जा रहे, टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना अच्छी बात है, टेक्नोफ्रेंडली होना अच्छी बात है लेकिन उसमे डूब जाना और डूब कर अपनों से दूर हो जाना अच्छी बात नहीं है, हमें याद रखना चाहिए कि सामाजिक प्राणी है और इसी से हमारा अस्तित्व है. 

Tuesday 29 August 2017

लोकतंत्र मंर रहा है और हम लोकतंत्र की चीत्कार को अट्टाहस का शोर मान खुशियां मना रहें है.

कमजोर पत्रकारिता से लोकतंत्र कमजोर होता है, और कमजोर लोकतंत्र में आम जन परेशान होता है 

लोकतंत्र में हमें वोट देने का अधिकार है, और अगर हम वोट देते हैं तो हमें सवाल पूछने का भी अधिकार है. लेकिन ऐसा लगता है मौजूदा दौर में हम सवाल पूछने की परंपरा को त्याग चुके हैं और फैन बन चुके हैं, जो लोकतंत्र के लिए खतरे का संकेत है. पत्रकारिता में पढ़ा था की मजबूत पत्रकारिता लोकतंत्र में विपक्ष के रुप में काम करता है, सावल पूछता है लेकिन अब तो वो भी नहीं दिखायी देता है और ना ही सुनाई देता है.

ऐसा लगता है नेताओं के विकास विकास के शोर में विकास कहीं पीछे छूट गया है और पूरी जनता विकास को छोड़कर शोर के पीछे भाग रही है,यथार्थ को पहचानने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है. सत्ता विकास के शोर में मगन में, विपक्ष सियासत के लिए मुद्दें तलाश रहा है, अफसरशाही अाराम फरमा रही है, और जनता तमाशा देखते हुए तमाशे का हिस्सा बन रही है. और इन सबके बीच आम आदमी दम तोड़ रहा है, इलाज के आभाव में बच्चों की मौत हो रही है.

सरकारी योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए 36 लाख रुपए के एलईडी युक्त दर्जनों वाहन राज्य भर में घूम रहे हैं और एंबुलेस के आभाव में खूंटी के कालामाटी में छात्रा की मौत हो जा रही है. गुमला में एक पिता को अपने मृत बच्चे को घर ले जाने के लिए एंबुलेंस नहीं मिल रहा है, अपने पीठ पर अपने मृत बेटे का शव ले जा रहा है, दवाओं के नाम पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं पर 50 रुपये नहीं मिलने के चलते बच्चे की मौत हो जा रही है. राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में 28 दिन में 133 बच्चों की मौत हो गयी है, मरीज को जमीन के नाली के पास सुलाकर इलाज कराया जा रहा है और सरकार उद्घाटन और शिलान्यस करने में व्यस्त है. 



जमशेदपुर के एमजीएम अस्पताल में एक महीने के अंदर 164 बच्चों की मौत हो गयी, वजह किसी को पता नहीं जांच की जा रही है, एनएचआरसी स्पष्टीकरण मांग रहा है, विपक्ष इस्तीफा मांग रहा है. पर मौत सिस्टम की जिस लापरवाही से हुई उसे सुधारने का प्रयास कोई नहीं कर रहा है. यह वो आंकड़ें है जो सामने आये हैं, बाकि और कितनों की मौत हुई होगी जांच का विषय हो सकता है. स्कूलों में मिड डे मिल, गांवों में आंगनबाड़ी, पोषण सखी, ममता वाहन, गरीबों को मुफ्त चावल ना जाने समाजिक कल्याण की कितनी योजनाएं है और योजनाओं के नाम पर करोड़ों का बंदरबांट है, और झारखंड की राज्यपाल खुद कह रही है कि राज्य में 75 फीसदी आदिवासी बच्चे कुपोषित है.

हाइकोर्ट तक को दखल देकर यह कहना पड़ रहा है कि इस राज्य में आमलोगों की परेशानी समझने वाला कोई नहीं. सिर्फ स्वास्थ्य ही नहीं राज्य में बाकी सेवाओं का भी यह हाल है. बुनियादी सुविधाओं की घोर कमी है, स्कूलों में शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं है और टेट पास शिक्षक सड़क पर आंदोलन कर रहे हैं. राज्य के स्तर पर कोई भी नियुक्ति होती है उसे हाइकोर्ट से गुजरना पड़ता है. इन सबके बीच सरकार हाथी उड़ाने में व्यस्त है. यह इसलिये क्योंकि सवाल पूछने वाले चुप है. पर सभी को समझना होगा की सिर्फ बच्चों की मौत नहीं हो रही है लोकतंत्र मंर रहा है और हम लोकतंत्र की चीत्कार को अट्टाहस का शोर मान खुशियां मना रहें है. लेकिन कब तक ध्यान रहे दुनिया गोल है कभी आपका भी नंबर आ सकता है. हां मन को सुकुन से भर ले अगस्त खत्म हो रहा है...

Thursday 20 July 2017

पहचान जिंदा रखने की जिद ने कितनी सांसे छीन ली...

गोरखा इमानदार होता है, देश के साथ गद्दारी करना गोरखा के खून में है लेकिन

गोरखा लैंड की मांग हम अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए कर रहे हैं, और यह हमारी जंग आखिरी सांस तक जारी रहेगी. दार्जीलींग से लौट कर आए एक शख्स ने यह बातें कही और कहा की हम यह लड़ाई 105 सालों से लड़ रहें हैं, हमारा आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से अब तक चला आ रहा है.  लेकिन हमारे सब्र का बांध टूट रहा हैं, वाकई इतनी लंबी लड़ाई लड़ने के बाद यह मनोस्थिती बन जाती है. चलिये इतिहास से शुरु करते हैं कि आखिर भारत देश में गोरखा का क्या इतिहास है. शुरुआत सुगौलि संधी से करते हैं, सन 1815 में ब्रिटिश शाषित भारत और नेपाल के बीच सुगौली की संधी हुई थी, इसके तहत नेपाल ने अपने जमीन का एक बड़ा हिस्सा इस्ट इंडिया कंपनी को दे दी, और उस जमीन के साथ वहां के निवासी भी भारत के हो गये. यह उस दौर की बात थी जिसके बाद गोरखा समुदाय का दार्जीलिंग, मिरिक कुर्सेयॉग सिल्लीगुड़ी, काइलीबुंग, तराई और दोअर्स क्षेत्र में आये. उस  वक्त यह पूरा क्षेत्र  भागलपुर प्रेसीडंसी के  अंतर्गत  आता  था, जिसे बाद में कोलकाता प्रेसीडेंसी कर दिया गाय और इलाके पश्चिम बंगाल का हिस्सा हो गए. इस वक्त अगल गोरखालैंड की मांग को लेकर दार्जीलिंग की खूबसूरत वादियों की फिजा में खामोशी और खूबसूरती खत्म हो गयी है, और विरोध के स्वर हर घर से मुहल्ले से निकल रहे हैं.  गोरखालैंड की मांग कर रहे लोगों का आरोप हैं कि आजादी के इतने सालों बाद भी साजिश के तहत पहाड़ी इलाको को विकास से दूर रखा गया, यहां ना ही अच्छे स्कूल खोले गये, ना ही कॉलेज ना ही अच्छे अस्पताल की स्थापना कि गयी. जिसके चलते यह इलाका काफी पिछड़ा हुआ है. इनका कहना है की इनकी भाषा और संस्कृति पश्चिम बंगाल से बिलकुल अलग है फिर इन्हें क्यों नहीं अलग राज्य का दर्जा दिया जाए. रांची में दार्जीलिग के मामले के जानकार ने बताया की यहां पर गोरखा राजनीति का शिकार हो रहे हैं. साजिश के तहत उनको उनका अधिकार नहीं मिल पा रहा है. उनको प्रतिनिधित्व भी नहीं मिल पा रहा है. अपना दर्द बताते हुए समुदाय के एक शख्स ने कहा की वो देश के किसी भी हिस्से में जाते हैं तो लोग उनसे पूछते है की क्या वो नेपाली है, इस सवाल का उन्हें हमेशा सामना करना पड़ता है. वो कहते हैं की वो नेपाली नहीं है वो भारतीय गोरखा है, क्योकि जब संधी के तहत आयी जमीन भारतीय हो गयी, नहीं भारतीय हो गयी, पेड़ पौधे भारतीय हो गये तो आखिर उस जमीन के वंशज भारतीय क्यों नहीं हो सकते हैं. उनके साथ ये भेदभाव क्यों किया जा रहा है जबकि गोरखा हमेशा देश के लिए अपनी जान देते आए हैं. फिर क्यों गोरखालैंड की मांग को लेकर उठ रहे आवाज को जबाने के प्रयास किया जा रहा है.  वैसे दौर में जब कश्मीर में हालात से देश वाकिफ है, कर्नाटक ने अपने लिए अलग झंडे की मांग रख दी, ऐसे समय में गोरखा लैंड की मांग की जा रही हैं, कुछ लोग इसे देशद्रोही नजरिये से देख रहें है लेकिन एक बार गोरखा लैड की मांग कर रहे लोगों का भी पक्ष सबको जानना चाहिए, वो अलग देश नहीं मांग रहे है वो अपना हक मांग रहे हैं, अपने विकास के लिए और अपनी पहचान को बनाये रखने रखने के लिए वो अपनी लड़ाई लड़ रहें है, एक बार सबको सोचना चाहिए.